लड़ते रहते हैं, नहीं, लड़ाये जाते हैं ताकि तीसरी शक्ति का राज्य बना रहे। उसी प्रकार स्त्रियों में भी अधिकतर विरोध इस कारण होता है कि माँ चाहती है कि बेटा मेरी अधिक सुने और स्त्री चाहती है कि मेरी। इस बात को वे खुले शब्दों में नहीं कहती बल्कि किसी न किसी बहाने से प्रकट करती रहती हैं। यदि उनकी दृष्टि इसके भी आगे जाती, उनका क्षेत्र विशाल होता; चूल्हा, चक्की और सन्तान-पालन--जिसे मैं सन्तान-पालन न कहकर बेगार टालना कहूँगी---और पति की गुड़िया बनने से आगे भी उन्हें कुछ करने को और सोचने को क्षेत्र मिलता तो वे बच्चों के समान छोटी-छोटी बातों पर कदापि न लड़तीं। एक बच्चा जिस प्रकार दूसरे बच्चे की शिकायत माँ के पास करता है और उसे दण्ड दिलाने की भी इच्छा प्रकट करता है और दण्डित देखकर प्रसन्न होता है किंतु सचमुच यदि माँ दूसरे बच्चे को मारने लगे और उसे पहले बच्चे के साथ खेलने से मना कर दे तो पहला बच्चा उदास होकर पछताने और क्षमायाचना करने लगता है। इन बच्चों के समान ही स्त्रियाँ भी छोटी-छोटी बातों पर लड़ लेती हैं। कभी-कभी पुरुषों तक शिकायत भी ले जाती हैं। जिस प्रकार बच्चे बड़े होकर विशाल क्षेत्र में आने पर छोटी-छोटी बातों के लिये नहीं लड़ते उसी प्रकार स्त्रियाँ भी यदि घर की चहारदीवारी के भीतर बन्द न रहकर बाहर देखने लगें और इससे भी आगे बढ़कर विशाल गगन की चहारदीवारी से आच्छादित विश्व को देख सकें तो आज के सास-बहू के और देवरानी-जिठानी के झगड़े अतीत की बात बन जायँ। आज तो युग ही लड़ाई झगड़े का है।
अब रहा वेषभूषा का सवाल! यह प्रश्न तब तक हल नहीं हो सकता जब तक स्त्रियों को आर्थिक अधिकार न मिलें। मैंने कितनी ही साधारण स्थिति की स्त्रियों से इस विषय में बात की। जवाब मिला--ये भारी-भारी कड़े, करधनी, टड्डे आदि हम न पहनें तो रखें कहाँ। घर में रखती हैं तो बेटे बहू निकाल लेते हैं। कहते हैं, क्या करना है तुम पहिनती तो हो ही नहीं, हम कुछ रोजगार धन्धा करेंगे आदि। कुछ थोड़ा बहुत पैसा उनके पास भी रहे, इसी इच्छा से ज़बरन उन्हें गहनों का भार सहन करना पड़ा है। इसका कारण है आर्थिक असहायावस्था। यदि स्त्री को विश्वास हो कि उसे ऐसा समय नहीं देखना पड़ेगा जबकि वह रोटी कपड़ों की मुँहताज बन जाय तो अधिकांश स्त्रियाँ खुशी-खुशी भारी गहनों को तिलाञ्जलि दे देंगी।
शास्त्रों में स्त्रियों को नरकद्वार कहा गया है। सारे धर्मशास्त्र पुरुषों द्वारा लिखे गये। इसीलिये तो उनमें पक्षपात है। स्त्रियों ने लिखे होते तो वे कभी न लिखतीं कि