पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नारी समस्या । शक्ति के बल नहीं; प्रेम के बल से । यह भी ध्यान रहे कि प्रेम द्वारा मनुष्य खरीदा नहीं जाता; स्वयँ बिकता है । मैं अपनी बहिनों से प्रार्थना करूँगी कि वे पुरुषों से सच्चा प्रेम करें, अपने कर्तव्य का पालन करें, किन्तु अनुचित बन्धन को कभी स्वीकार न करें । आत्माभिमान की बलि न करें । अनुचित बन्धन, दासता, और स्वात्माभिमान के न होने के कारण ही आज आपका व्यक्तित्व नहीं रहा और अनेक अवगुण आ गये । आप बिना इच्छा, पद्धति-नियम के विरुद्ध बूंघट काढ़ती हैं; देखने की इच्छा होने पर भी कानी आँख से देखती हैं;बोलने की अनुमति न होने पर टचकारों और हाथ के इशारों से बातें समझाती हैं; भारी-भारी वस्त्राभूषणों से जकड़ी रहती हैं; सड़कों पर लज्जा के विरुद्ध नहाना, खाना, रोना आदि सब कुछ करती हैं, जो स्त्री-जाति को कलंकित करता है । यदि आप में स्वाभिमान और व्यक्तित्व होता तो यह कार्य आप कभी न करतीं । आप के ऊपर समाज के इतने कड़े बन्धन पड़े कि उनने आप में आत्म-विस्मृति पैदा कर दी । आज आप को मानवीय स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिये बहुत शक्ति और ज्ञान की आवश्यकता है । महात्मा गांधी अपने विधायक कार्यक्रम में लिखते हैं:-"स्त्री ऐसे कानून और रस्म. रिवाज़ों से दबा दी गई जिनके लिये पुरुष जिम्मेवार हैं और जिनके गढ़ने में स्त्री का काई हाथ नहीं रहा । अहिंसा की नींव पर जमी हुई समाज व्यवस्था में स्त्री को अपने भाग्य का विधान करने का उतना ही अधिकार है जितना पुरुष को । स्त्री को अपने मित्र और सहयोगी समझने के बजाय पुरुषों ने अपने का उनका स्वामी और शासक माना है । कांग्रेसजनों का यह विशेष कर्तव्य है कि वे भारत की स्त्री जाति का ऊपर उठाने में मदद करें । स्त्रियों की स्थिति कुछ-कुछ पुराने जमाने के गुलामों जैसी है, जिन्हें यह होश भी नहीं होता था कि वे कभी आज़ाद हो सकते हैं या उन्हें आज़ाद होना चाहिये । स्त्रियों को यह सिखाया गया है कि वे अपने आप को पुरुषों की दासिया समझे । कांग्रेसजनों का यह फर्ज है कि वे स्त्रियों को उनका पूरा स्तबा प्राप्त कराके पुरुषों की बराबरी से काम करने की शक्ति सम्पादन करा दें। हमारी पत्निया गुड़िया या भोग्य विषय नहीं होनी चाहिये ।" आज हमें स्वाधीनता के लिये पुरुषों के "मुक्त करो नारी को मानव मुक्त करे। नारी का । युग युग की बंदी कारा से जननि सखी प्यारी को" ये सिफ़ारशी वाक्य नहीं चाहिये । हमें स्वयं अपने चरित्र और दृढ़ इच्छा-शक्ति द्वारा ही दास्य-पाश का छिन्न-भिन्न कर समानता से साझीदार बनने का प्रयास करना है ।