पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/४१

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परिवार में नारी का स्थान हिन्दू समाज में जबतक स्त्री गर्भवती रहती है तबतक तो घर वाले ईश्वर से पुत्र मांगते रहते हैं और पुत्र होने की आशा में तरह-तरह के मनसूबे बाँधते हैं, मनौतिया मानते हैं और देवताओं के बल पर धैर्य धारण किये रहते हैं; लेकिन जब लड़के की जगह लड़की पैदा होती है तो घर भर में ऐसी उदासी छा जाती है जैसे कोई महान अप्रिय घटना घट गई हो। परिवार में पूरा शोक छा जाता है । पड़ोसी परिवारों की स्त्रियां शोक मनाने और रोने आती हैं और उनके सामने घर की बड़ी बूढ़ी स्त्रिया भी दु:ख के आंसू बहाती हैं । लड़का होने की आशा से ब्राह्मणों और भिक्षुओं का दान, नौकर-चाकरों को इनाम और रिश्ते वालों को पुरस्कार श्रादि देने के लिये जो सामग्री जुटाई जाती है वह सब सन्दूकों में बन्द कर दी जाती है । क्योंकि लड़की के विवाह की चिन्ता जो लग जाती है ! आखिर कुछ विवाह के लिये भी तो चाहिये । लड़का होता है तो जच्चा का अधिक श्रादर होता है । उसकी सेवा-शुश्रूषा की ओर कुछ अधिक ध्यान दिया जाता है । उसके खाने पीने की भी चिन्ता रखी जाती है । लेकिन लड़की पैदा करनेवाली माँ का भगवान ही मालिक है । कहीं-कहीं वो लड़की का नाम सुनकर परिवार का तिरस्कार पाने के भय से जच्चा का मूछी तक आ जाती है । लड़की का पालन-पोषण भी बड़ी बेदर्दी और लापरवाही से होता है । कहीं- कहीं तो उसे अपने भाइयों की जूठन तक खाकर बड़ा होना पड़ता है। लड़कों के लिये दूध की व्यवस्था की जाती है लेकिन लड़कियों के लिये यह खर्च व्यर्थ और अनावश्यक समझा जाता है । यदि किसी घर में एक ही लड़की हुई तो किसी तरह घर वाले अपना दिल समझा लेते हैं और उस पर. तनिक कृपापूर्ण नज़र रखते हैं किन्तु यदि पाँच-सात लड़किया होंगी तो उन बेचारियों की दुर्दशा वर्णनातीत ही समझिये ।