नारी समस्या बहू को रसोईघर में रोटी लाने भेजती है और फिर तरकारी के लिये पूछती है कि कितनी है, तो बहू फिर दौड़ती जाती है और तरकारी बतला देती है। यदि सास ने फिर पूछ लिया कि तरकारी काहे की है तो, फिर चौके में भागना पड़ेगा। घर में कितनी अव्यवस्था रहती है ? जाले लगे रहते हैं । खिड़की के दरवाजे पर गर्द जमी रहती है, और दीवालों पर धब्बे पड़े रहते हैं । घर के कोनों में कूड़ा-करकट जमा रहता है । मोरिया गन्दी रहती हैं । बर्तन चमचमाते हुए नहीं रहते । इन सब का कारण दृष्टि को जमीन में गड़ाये रखना ही है । इधर उधर देखने की हमें मनाई रहती है। तिसपर भी आखों पर एक परदा और डाल दिया जाता है ताकि मनुष्य स्वभाव के कारण यदि हम भूलकर भी कुछ देखना चाह तो न देख सकें। यह तो हमें सिखलाया ही नहीं जाता कि किस तरह हम अपनी दृष्टि का पैनी बनावें और देखना सीखें । जिस रास्ते से निकल जायँ उस रास्ते की सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु भी हमारी निगाह में आनी चाहिये और उन चीज़ों के भीतर दूर तक घुसने की हमारी आदत होनी चाहिये । अब समय कल- पुरज़ों की नाईं चलते रहने का नहीं, वरन् देखने, सुनने-समझने और करने का है" "न मालूम आप क्या बोल रही हैं बहिन ! मेरी तो कुछ समझ में नहीं आया ।" मालती की सास ने कहा- मैंने तनिक दुखी होकर कहा कि "समझ में कैसे आवे बहिन ! हम इसके लिये बनी ही नहीं हैं | मशीन की तरह कुछ गिने गिनाये काम हमारे लिये निधारित रहते हैं । वे सारे के सारे काम गुलाम की तरह हमें रात दिन करते रहने पड़ते हैं किन्तु इस परदे के कारण उन सब कामों को भी जो हमें सौंपे गये हैं हम अच्छी तरह जवाबदारी से नहीं कर सकतीं।" "और तो सब बातें ठीक हैं परन्तु खाने पीने का विचार जितना हमारे यहा है उतना आप के यहाँ नहीं । आप तो इस दिशा में बिलकुल भ्रष्ट हो गयी हो । देखो न मैं जब भोजन करती हूं तब मज़ाल क्या कि ग्वाला तक चौके में पैर रख ले । परन्तु आप तो मुसलमानों और अस्पृश्य जातियों के हाथ का खा लेती हो । अब यह बताओ कि आपका भोजन पवित्र है या हमारा ?" मैंने कहा "बहिनजी आचार तो आप के बहुत हैं पर विचार नहीं । आप छुआछुत का तो बहुत ख्याल करती हैं किन्तु यह विचार होता है ऊपरी बातों का ही । अर्थात् आप मनुष्य से परहेज करती हैं, बुराइयों से नहीं" । वृद्धा ने आश्चर्य से कहा- "हैं हमारे चौके
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