हमारी वेश-भूषा साहित्य में कला का जो स्थान है, धर्म में संस्कृति और सभ्यता का जो मूल्य है, काव्य में व्यजंना की जो प्रतिष्ठा है, भक्ति में शुद्धता, सरलता और विनय का जो स्थान है, वही सौन्दर्य में वेष-भूषा का है । वेष-भूषा स्वयं निर्जीव होकर भी वातावरण को सजीवता देती है । उसमें मानव की आत्मा की झलक भी रहती है और मस्तिष्क की तस्वीर भी । वह स्वयं बोलती भी है । ऐसी अावश्यक वस्तु को हम उपेक्षित कैसे रख सकते हैं। वैसे तो अधभूखे भारत में वेष-भूषा पर विचार ही. क्या ? मैले-कुचैले शरीर को चिथड़ों से किसी प्रकार ढक लेने वाली जनता की वेष-भूषा में सुधार ही कैसा ? उसकी छानबीन ही क्या ? किन्तु छोटासा पूँजीपति वर्ग भारत में ऐसा है जो अत्यधिक और अनावश्यक वस्त्राभूषण रखकर उनका दुरुपयोग भी करता है । जैसे मारवाड़ी समाज का भृतकालीन तीन थान का एक घाघरा चार पोशाकों के खर्च का ही नहीं, भद्दा भी होता है। साथ ही साधारण स्त्रियाँ क्स्त्रों में पैसे खर्च करके भी अपने को व्यवस्थित नहीं रख पातीं। उनके सामने भी वेश की समस्या है ही। वेष-भूषा व्यक्ति की ही नहीं समाज और राष्ट्र की रुचि की परिचायक है । अाज हम अधिकतर वेषभूषा धारण करते हैं वह समाज की दृष्टि से ही, व्यक्ति की दृष्टि से नहीं । यह समाज के लिये बहुत अच्छी चीज़ है क्योंकि समाज की भलाई की दृष्टि से जो कार्य होता है उसमें दृष्टि व्यापक रहती है और व्यक्ति की दृष्टि से जो कार्य होता है उसमें संकुचितता । फिर वेश का जन्म ही सामाजिक प्रवृत्ति के कारण हुआ है । यदि हमारा पिछड़ा हुआ समाज व्यक्ति की दृष्टि से वेषभूषा पहिनता तो कभी भद्दी वेषभूषा नहीं पहिन सकता । वह शरीर सजाने के लिये इस प्रकार की वेषभूषा नहीं पहिनता ।
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