राजस्थानी स्त्रियों के वस्त्राभूषण राजस्थानी समाज में कुछ परिवार ऐसे हैं जिन्होंने अपनी वेश-भूषा में सुधार किया है । किन्तु ऐसे लोग अँगुलियों पर गिनने लायक ही हैं । बम्बई आदि बड़े-बड़े शहरों में रहने वाले, और कुछ सुधार-प्रिय सज्जनों के ही घरों में स्वच्छ, स्वास्थ्यप्रद और सुन्दर वेश-भूषा दिखाई देती है । अधिकतर समाज की वेश-भूषा आज इस क्रांति के ज़माने में भी एक शताब्दी पीछे को ही दृष्टिगोचर होती है । हमारी वेश-भूषा आर्थिक, स्वास्थ्य, सफ़ाई और सौन्दर्य की दृष्टि से आज उपादेय नहीं है । जिस वेश-भूषा में ये चारों गुणा नहीं वह वेश-भूषा उपयुक्त नहीं मानी जा सकती । अन्य प्रान्तीय बहनों की अपेक्षा मारवाड़ी बहनें वेश-भूषा. पर अधिक खर्च करती हैं । उनका अफेला घाघरा ही ऐसा है कि जिसमें गुजराती बहनों की अनेक पोशाके बन जायें । इन भारी-भारी वस्त्रों के बनाने में स्त्रियाँ रात-दिन परेशान रहती हैं । यहाँ तक कि उन्हें घर-द्वार और बच्चों की देख-भाल को भी फुरसत नहीं मिलती । घर में चारों ओर कूड़ा-कचरा जमा रहता है | बच्चों की नाक बहती रहती है लेकिन उन्हें अपने कपड़ों से फुरसत मिले तब न ? वे बड़े-बड़े घाघरे, ओढ़ने, चोली और कबज़ों में जाल तथा बेल-बूटे काढ़ने में लगी रहती हैं। इनके बनाने में धन और समय दोनों की बरबादी होती है। फिर भी दूसरे सभ्य समाजों के आगे इतनी मेहनत से बनाये हुए कपड़े हँसी के साधन · होते हैं। किसी तरह एक बार बन जाने के बाद ये कपड़े जीवन भर धुल नहीं पाते । धुलने से इन कपड़ों का गोटा-किनारी सब कुछ खराब हो जाता है । मैल के कारण उनमें बदबू भी आने लगती है। तिस पर भी वे उनका पिंड नहीं छोड़ सकतीं । कपड़े प्रतिदिन धुले हुए पहिनना चाहिये । पर ये. महीनों तक एक. ही कपड़ा
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