पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/६७

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राजस्थानी स्त्रियों के वस्त्राभूषरप पहिने रहती हैं । जाल और बेल-बूटे लगाकर बड़ी कठिनाई से वे इन्हें तैयार करती हैं, फिर ऐसे ही कैसे छोड़ दें ? यदि कोई बहू-बेटी धुले हुए साफ और सफेद कपड़े पहिन ले तो बड़ी-बूढ़ी उनके जी पर आफत ढा देती हैं। वे उन्हें कुलक्षणा और 'स्यामन' आदि अनेक उपाधियों से विभूषित करती रहती हैं । कपड़े कितने ही कीमती क्यों न पढ्ने जाय, यदि वे स्वच्छ नहीं हैं. तो शरीर की शोभा को बढ़ाने के स्थान पर घटा । एक ओर खुब गोटे-किनारी से जड़ी लथ-पथ मैली पोशाक में एक स्त्री को खड़ा कीजिये और दूसरी ओर अत्यन्त स्वच्छ दो-चार रुपये की माड़ी . पहिने किसी महिला को खड़ा कीजिये फिर निष्पक्ष होकर देखिये किसकी पोशाक अधिक जंचती है । गुजराती बहनों को देखिये, क्या उनके कपड़े मारवाड़ी बहिनों से अधिक कीमती होते हैं ? क्या गुजरात और मारवाड़ में बहुत अधिक अन्तर है ? दोनों की सीमायें बिलकुल मिली हुई हैं। लेकिन हम पर इन पड़ोसिनियों का भी कुछ प्रभाव नहीं पड़ता। हाँ, ज्योतिषी, रमाल और जंतर-मंतर वाले अपना प्रभाव बड़ी मरलता मे जमा स्वास्थ्य के लिये सफाई की बहुत अधिक आवश्यकता है । शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य दोनों पर ही वेश-भूषा का बहुत असर पड़ता है। कीमती होने के कारण, मैले होने पर भी कपड़ों का मोह नहीं छोड़ा जाता, यद्यपि उन्हें पहिनकर शरीर और मन मलिन अवश्य हो जाते हैं ! कीमती कपड़े किसी अवसर के लिये रखे जा सकते हैं लेकिन प्रतिदिन पहनने कपड़े तो ऐसे ही होने चाहिये जो नित्य धोये जा सकें। अनेक बहिनों को मैंने देखा है जिनके घाघरे सामने से तो ज़मीन से बातें करते हैं और पीछे से पिंडलियों पर चढ़े रहते हैं। मामने घाघरे के ऊपर पेट लटकता रहता है । यह लज्जाजनक बात है.। कितनी ही बहिनों के घाघरे मैंने देखे हैं जिनमें जें पड़ी रहती हैं । इधर चूल्हे पर साग पका करता है और उधर वे . बावरे की जॅ मारा करती हैं। अपने समाज की बहिनों की ऐसी बातें बताते शर्म और घृणा से मस्तक झुक जाता है । परन्तु क्या किया जाय ? हमें तबतक कोई कुरीनि दिखाई ही नहीं देती कि जस्तक कोई अच्छी तरह से हाथ पकड़कर दिखा न दे। कुछ स्त्रियाँ अपने बिस्तरों की बोली, चद्दर तो शायद साल में एक या दो बार ।