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पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/७४

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. नारी समस्या , सिनेमा का व्यवसाय बहुत उन्नति पर है । यदि हम इस व्यवसाय का अच्छा उपयोग करें तो इससे देश का हित भी हो सकता है। किन्तु इसके लिये हमें अपनी रुचि का परिमार्जन करना पड़ेगा । यूरोप के वैभवशाली देशों की बात छोड़ दीजिये; जहाँ सिनेमा का बहुत प्रचार है । परन्तु वहाँ की और हमारे देश की फिल्मों में बहुत अन्तर है क्योंकि उनकी और हमारी संस्कृति, रीति रिवाज़, चालचलन, आदर्श, धर्म-सम्बन्धी कल्पनाओं और वेशभूषा में अत्यन्त भिन्नता है । वैसे भी वहाँ की फिल्में शिक्षा एवं कलापूर्ण होती हैं और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। परन्तु हमारे यहाँ तो बात ही दूसरी है । यहाँ न किसी को कला की चिन्ता है और न रुचि-परिमार्जन की । सिनेमा यहाँ पैसा पैदा करने का नया धन्धा हो गया है । यह विचार नहीं किया जाता कि इन फिल्मों का देश के नवयुवकों और नवयुवतियों पर क्या असर पड़ेगा ? किसी तरह जेब भरनी चाहिये, यही उद्देश मालिकों के सामने रहता है । यह भी एक प्रश्न है कि क्या सिनेमा क्षेत्र में कुलीन घराने की महिलाएँ भाग ले सकती हैं ? मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि हमारे यहाँ सुरुचि का बहुत ही कम ध्यान रखा जाता है। कला और शिक्षा की दृष्टि से बहुत कम फिल्में अच्छी होती हैं । अधिकतर फिल्में वासना-प्रधान होती हैं जिन्हें देखकर नवयुवक और नवयुवतिया यही सीखते हैं कि किस प्रकार के बाल बनाने चाहिये, कैसी वेशभूषा से स्वयं को सजाना चाहिये, कैसे हाव-भाव करने चाहिये जिससे दूसरे लोग उन्हें पसन्द करें । मैं पूछना चाहती हूँ कि इसके सिवा क्या देश का और किसी बात की ज़रूरत नहीं है ? और इन तस्वीरों को पिता-पुत्र, भाई-बहन साथ-साथ देखते हैं ! आज की फिल्मों में अधिकतर एक ही बात देखने को मिलती है । एक नायक रहता है और एक नायिका। दोनों एक दूसरे से मिलने के लिये तड़पते हैं । अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं। अन्त में दोनों का मिलन हो जाता है। बस, खेल ख़तम । इसी बात को लेकर अनेक 'प्लाट' बनाये जाते हैं । लोगों के दिल बहलाने के लिये नंगे नाच भी होते हैं। संसार में वासनामय प्रेम के सिवा, मनुष्य का और भी. कुछ कर्तव्य है या नहीं;-इस बात का कितने आदमी समझते हैं ? पिता-पुत्र, भाई-बहिन गुरु-शिष्य में तथा देश और समाज के प्रति क्या उच्च प्रेम-भावना का विकास नहीं हो सकता ? क्या इन बातों को सामने रखकर ऊँचे दर्जे की फिल्में नहीं बन सकतीं ? किन्तु इसमें दोष किसी का नहीं है। गुलामों की मनोवृत्ति उन्हें हमेशा पतन की ओर । .