पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/८३

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हमारा नारी-समाज ( एक दृष्टि में) संसार का इतिहास बतलाता है कि आवश्यकतानुसार प्रचलित रूढ़ियों, प्रथाओं और विश्वासों के स्थान पर समाज नये विश्वासों, धारणाओं और क्रियाओं को अपनाता है । वर्षों के साये राष्ट्र जागते हैं, जागने वाले सोते हैं और एक नई शक्ति के लिये स्थान खाली करते हैं । नये प्रयत्न में नये व्यक्तित्व पनपते, गिरते,उठते, फिर गिरते और फिर उठकर खड़े होते हैं । परिवर्तन का यह क्रम न केवल मनुष्य जगत में अपितु सर्व प्राणियों में-नहीं नहीं-जड़ पदार्थों में भी देखा जाता है। राष्ट्र और समाज में अन्तर ही क्या है ? उठा हुआ राष्ट्र भी समय के थपेड़े खाकर लड़खड़ा जाता है, गिरता है और फिर उठता है उठकर धीरे-धीरे वह फिर शक्ति-संचय करता है, अपनी अवस्था पर गौर करता है, सम्हलता है । तब परीक्षा का समय आता है। दण्ड और पुरस्कार की घड़ी आती है । बलिदेवी खाली खप्पर ले आ पहुँचती है । प्रलोभन चारों ओर चक्कर काटने लगते हैं । काई माया में फँस जाता है, काई पद के पंक में । कुछ ही ऐसे माई के लाल होते हैं जो दृढ़तापूर्वक जुटे रहते हैं बन्धनों को काटने में, बिना इधर-उधर की परवाह किये । यही अवस्था आज भारतीय नारी की है। पुरुषों ने उसे दबाया है यह सच है किन्तु आज उषा वेला में भी स्वयं शिक्षित तथा कार्य करने की योग्यता रखने वाली महिलायें जितना चाहिये उतना इधर ध्यान नहीं देतीं । इसमें सन्देह नहीं कि गत बीस वर्षों में नारी-आन्दोलन काफी आगे बढ़ा है और स्त्रियों ने सामाजिक सुधार, लोक-सेवा, बौद्धिक चेतना आदि सभी क्षेत्रों में काफ़ी प्रगति की है। प्रत्येक क्षेत्र में भारत की महिलायें कम या अधिक संख्या में आगे आई हैं। फिर भी यह चेतना देश की भारी जनसंख्या को देखते हुए नगण्य है । सारी उन्नति,