पृष्ठ:नारी समस्या.djvu/९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नारी-समाज में जागृति और अनुसूया बनना उस युग के पुरुष को विशेष रुचिकर था । वह उसे देवी बनाने को तैयार था । मानवी को मानवी के रूप में स्वतन्त्र देखना उसे सहन न हो सका। गत महायुद्ध के पश्चात् महात्माजी के नेतृत्व में ज्यों-ज्यों राष्ट्रीयता की भावना जोर पकड़ती गई, नारी आन्दोलन बलवत्तर होता गया। सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों में उसने पुरुषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम किया। बड़े से बड़े कष्ट और यातनायें सहीं पर उफ़ न की । नारी-समाज के लिये यह कम गौरव की बात नहीं है कि पिछले किसी आन्दोलन में कहीं भी स्त्रियों ने माफी मांगकर स्वयं का कलंकित न किया । स्त्री के इस त्याग और साहस ने पुरुष-समाज की आखें खोल दीं। पुरुषों को यह विश्वास होने लगा कि स्त्रिया भी यदि चाहें तो पुरुषों के समान कार्य कर सकती हैं । सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गांधी, स्वरूपरानी नेहरू, कमलादेवी चट्टोपाध्याय और कमला नेहरू आदि के अदम्य उत्साह और बलिदान ने नारी जाति का मस्तक उन्नत किया । अपनी सफलता से आश्वस्त होकर जीवन की दूसरी आवश्यकताओं की ओर नारियों ने दृष्टि डाली । आर्यसमाज ने भी सैकड़ों की संख्या में कन्या पाठशालायें और गुरुकुल खोलकर शिक्षा-वितरण का पुण्य कार्य तो किया ही, साथ ही मन और मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जाने वाले विष से भी अपनी स्नातिकाओं को बचाया । पंजाब, युक्तप्रान्त और बिहार में इन संस्थाओं के द्वारा बहुत बड़ा कार्य हुआ है । इधर कला-गगन में श्री महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, उषादेवी मित्रा, दिनेश नन्दिनी, रत्नकुमारी, विद्यावती काकिल, आदि ज्योतिर्मय तारिकाओं ने शीतल चंद्रिका बिखेर दी है । विज्ञान तथा अन्य उपयोगी विषयों में भी आज भारत की नारियां द्रुतगति से पुरुषों से होड़ लेने लगी हैं। यदि आप गत पाँच सात वर्षों का विश्वविद्यालयों का परीक्षाफल देखें तो आप का हृदय आनन्दातिरेक से फूल उठेगा । कौनसी ऐसी परीक्षा है और कौनसा विश्वविद्यालय है जिसमें छात्रायें छात्रों को पीछे छोड़कर आगे न निकल गई हों ? तैरना, दौड़ना, खेल, व्यायाम आदि में भी छात्रायें आश्चर्यजनक उन्नति दिखा रही हैं यह सब देखकर सचमुच हृदय उल्लसित हो उठता है । किन्तु यह स्थिति का अधूरा चित्र है । कुछ थोड़े से साधन-सम्पन्न लोगों की ही यह गाथा है । संगीत, कला, काव्य, विज्ञान, स्वास्थ्य आदि विषयों के ये आकड़े समाज के कुछ गिने चुने परिवारों तक ही सीमित हैं । यदि हम भारत के उन भागों को निकाल दें जहाँ की भाषा हिन्दी नहीं है तो इस प्रकार के संस्कृत परिवारों की संख्या और भी