लेख लिखे थे, जिनमें सबसे अधिक जीवनचरित थे। उनमें 'विशुद्ध-चरितावली' तो आदर्शरूप मानी जा सकती है, पर खेद की बात है कि वह अधूरी ही रह गई। हिंदुओं के पर्वो या त्यौहारों पर उन्होंने आठ लेख लिखे थे जो बड़े ही सुन्दर और मामिक हैं। ये लेख श्रीपंचमी, होली, रामलीला, व्यासपूजा, नवीन वर्षोत्सव, कुम्भपर्व, श्रावण के त्यौहार और विजया दशमी के संबंध में लिखे गए हैं। इसके साथ उनके सात तीर्थस्थानों तथा यात्राओं के वर्णन बड़े ही मनोहर और सुन्दर हुए हैं। इनके सब लेखों का संग्रह छप गया है। उनकी समालोचनाएँ भी बड़ी निर्भीक पर शिष्ट होती थीं । उन्होंने वैश्योपकारक' पत्र का भी कोई दो वर्ष तक संपादन किया था। इसी प्रकार धर्मपक्ष में वे सनातन धर्म के पूर्ण पक्षपाती थे। उसके अपमान या निंदा को वे सह नहीं सकते थे। भारतधर्म- महामंडल के उत्थान और उन्नति में उन्होंने पंडित दीनदयालु शर्मा का सहयोग किया था, पर पीछे मतभेद हो जाने के कारण बे उसके विरुद्ध हो गए। समाज-सेवा करने में वे कभी पराङ्मुख नहीं हुए । उन्होंने कलकत्ते के विशुद्धानंद सरस्वती विद्यालय की स्थापना में पूरा उद्योग किया तथा मारवाड़ियों की कई सामाजिक कुरीतियों के दूर करने में प्रशंसनीय सफलता प्राप्त की थी। मिश्रजी का स्वभाव दृढ़, मिलनसार और निरपेक्ष था। मित्रता का नाता वे सदा निबाहते थे पर अपने सिद्धांतों से कभी
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