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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१०५

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(६) कन्यादान

नयनों की गंगा

धन्य हैं वे नयन जो कभी कभी प्रेम-नीर से भर आते हैं। प्रति दिन गंगा-जल से तो स्नान होता ही है परंतु जिस पुरुष ने नयनों की प्रेम-धारा में कभी स्नान किया है वही जानता है कि इस स्नान से मन के मलिन भाव किस तरह बह जाते हैं; अंत:करण कैसे पुष्प की तरह खिल जाता है; हृदय-ग्रंथि किस तरह खुल जाती है; कुटिलता और नोचता का पर्वत कैस चूर-चूर हो जाता है। सावन-भादों की वर्षा के बाद वृक्ष जैसे नवीन नवीन कापलें धारण किए हुए एक विचित्र मनामोहिनी छटा दिखाते हैं उसी तरह इस प्रेम-स्नान से मनुष्य को आंतरिक अवस्था स्वच्छ, काेमल और रसभोनी हो जाती है। प्रेम-धारा के जल से सींचा हुआ हृदय प्रफुल्लित हो उठता है। हृदयस्थली में पवित्र भावों के पौधे उगते, बढ़ते और फलते हैं । वर्षा और नदी के जल से तो अन्न पैदा होता है; परंतु नयनों की गंगा से प्रेम और वैराग्य के द्वारा मनुष्य-जीवन का आग और बर्फ से बपतिस्मा मिलता है अर्थात् नया जन्म होता है-मानो प्रकृति ने हर एक मनुष्य के लिये इस नयन-नीर के रूप में मसीहा भेजा