है, जिसमे हर एक नर नारी कृतार्थ हो सकते हैं। यही वह यज्ञोपवीत है जिसके धारण करने से हर आदमी द्विज हो सकता है। क्या ही उत्तम किसी ने कहा है :-
हाथ खाली मर्दुमे दीदः वुतों से क्या मिले।
माेतियों की पंज-ए-मिजगों में इक माला ताे हो ।
आज हम उस अश्रु-धारा का स्मरण नहीं करते जा ब्रह्मानंद के कारण यागी जनों के नयनों से बहती है। आज तो लेखक के लिये अपने जैस साधारण पुरुषों की अश्रु-धारा का स्मरण करना ही इस लेख का मंगलाचरण है। प्रेम को बूंदों में यह असार संसार मिथ्या रूप होकर घुल जाता है और हम पृथ्वी से उठकर आत्मा के पवित्र नभा-मंडल में उड़ने लगते हैं। अनुभव करते हुए भी ऐसी घुली हुई अवस्था में हर कोई समाधिस्थ हा जाता है; अपने आपको भूल जाता है; शरीराध्यास न जाने कहाँ चला जाता है; प्रेम की काली घटा ब्रह्म-रूप में लीन हो जाती है। चाहे जिस शिल्पकार, चाहे जिस कला. कुशल-जन, के जीवन को देखिए उसे इस परमावस्था का स्वयं अनुभव हुए बिना अपनी कला का तत्त्व ज्ञान नहीं होता। चित्रकार सुदरता को अनुभव करता है और तत्काल ही मारे खुशी के नयनों में जल भर लाता है। बुद्धि, प्राण, मन और तन सुदरता में डूब जाते हैं। सारा शरीर प्रेम-वर्षा के प्रवाह में बहने लगता है। वह चित्र ही क्या जिसको देख देखकर चित्रकार की आँखें इस मदहोश करनेवाली ओस से तर न हुई