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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१११

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कन्यादान

किस तरह वह अपने आपको उत्तम से उत्तम और महान् से महान् बनाये-वह उस बेचारी निष्पाप कन्या के शुद्ध और पवित्र हृदय को ग्रहण करने का अधिकारी हो जाय । प्रकृति ऐसा दान बिना पवित्रात्मा के किसी को नहीं दे सकती । नौजवान के दिल में कई प्रकार की उमंगें उठती हैं उसकी नाड़ी नाड़ी में नया रक्त, नया जोश और नया जोर आता है। लड़ाई में अपनी प्रियतमा का खयाल ही उसका वोर बना देता है।

उसो के ध्यान में यह पवित्र दिल निडर हो जाता है। मौत को जीतकर उसे अपनी प्रियतमा को पाना है। ऊँचे से ऊँचे आदर्श को अपने सामने रखकर यह राम का लाल तन- मन से दिन-गत उसके पाने का यत्न करता है। और जब उसे पा लेता है तब हाथ में विजय का फुरेरा लहराते हुए एक दिन अकस्मात् उस कन्या के सामने आकर खड़ा हो जाता है। कन्या के नयनों से गंगा बह निकलती है और उस लाल का दिल अपनी प्रियतमा की सूक्ष्म प्राणगति से लहराता है, काँपता है, और शरीर ज्ञानहीन हो जाता है। बेबस होकर वह उसके चरणों में अपने आपको गिरा देता है। कन्या तो अपने दिल को दे ही चुकी थी; अब इस नौजवान ने आकर अपना दिल अर्पण किया। इस पवित्र प्रेम ने दोनों के जीवन को रंशमी डोरों से बाँध दिया- तन-मन का होश अब कहाँ है तू और तू मैं वाली मदहोशी हो गई। यह जोड़ा मानो ब्रह्म में