सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

९०

निबंध-रत्नावली

अवकाश मिलता है मैं वहीं जाकर सोता हूँ। इन पत्थरों पर खुदी हुई मूर्तियों के दर्शन की अभिलाषा मुझे वहाँ ले जाती है। मुझे उन परम पराक्रमी प्राचीन ऋषियों की आवाजें इन खंडहरों में से सुनाई देती हैं। ये सँदेसा पहुँचानवाले दूर से आए हैं। प्रमुदित होकर कभी मैं इन पत्थरों को इधर टटोलता हूँ, कभी उधर रोलता हूँ ! कभी हनुमान की तरह इनको फोड़ फोड़ कर इनमें अपने राम ही को देखता हूँ। मुझे उन आवाजों के कारण सब कोई मीठे लगते हैं। मेरे तो यही शालग्राम हैं। मैं इनको स्नान कराता हूँ, इन पर फूल चढ़ाता हूँ और घंटी बजाकर भोग लगाता हूँ। इनसे आशीर्वाद लेकर अपना हल चलाने जाता हूँ। इन पत्थरों में कई एक गुप्त भेद भी हैं। कभी कभी इनके प्राण हिलते प्रतीत होते हैं और कभी सुनसान समय में अपनी भाषा में ये बोल भी उठते हैं।

भारत में कन्या-दान की रीति

भाई की प्यारी, माता की राजदुलारी, पिता की गुणवती पुत्री, सखियों की अलबेली सखी के विवाह का समय समीप आया। विवाह के सुहाग के लिये बाजे बज रहे हैं। सगुन मनाए जा रहे हैं। शहर और पास-पड़ोस की कन्याएँ मिलकर, सुरोले और मोठे सुरों में रात के शब्दहीन समय को रमणीय बना रही हैं। सबके चेहरे फूल की तरह खिल रहे हैं। परंतु ज्यों ज्यो विवाह के दिन नजदीक आते जाते हैं त्यों त्यों विवाह होने-