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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१३१

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कन्यादान

वाली कन्या अपनी जान को हार रही है, स्वप्नों में डूब रही है। उसके मन की अवस्था अद्भुत है । न तो वह दुखी ही है और न रजोगुणी खुशी से ही भरी है। इस कन्या की अजीब अवस्था इस समय उसे अपने शरीर से उठाकर ले गई है और मालूम नहीं कहाँ छोड़ आई है। इतना जरूर निश्चित है कि उसके जीवन का केन्द्र बदल गया है। मन और बुद्धि से परे वह किसी देव-लोक में रहती है। विवाह-लग्न आ गई। स्त्रियाँ पास खड़ी गा रही हैं । अजीब सुहाना समय है यथासमय पुरोहित कन्या के हाथ में कंकण बाँध देता है । इस वक्त कन्या का दर्शन करके दिल ऐसी चुटकियाँ भरता है कि हर मनुष्य प्रेम के अश्रुओं से अपनी आँखें भर लेता है। जान पड़ता है कि यह कन्या उस समय निःसंकल्प अवस्था को प्राप्त होकर अपने शरीर को अपने पिता और भाइयों के हाथ में आध्यात्मिक तौर से सौंप देती है। उसकी पवित्रता और उसके शरीर की वेदनावर्द्धक अनाथावस्था माता-पिता और भाई-बहन का चुपके चुपके प्रेमाश्रओं से स्नान कराती है । कन्या न तो रोती है और न हँसती है, और न उसे अपने शरीर की सुध ही है। इस कन्या की यह अनाथावस्था उस श्रेणी की है जिस श्रेणी को प्राप्त हुए छोटे छोटे बालक नेपोलियन ऐसे दिग्विजयी नरनाथों के कंधों पर सवार होते हैं या ब्रह्म-लीन महात्मा बालकरूप होकर दिल की बस्ती में राज करते हैं। धन्य है, ऐ तू आर्यकन्ये ! जिसने अपने क्षुद्र-जीवन को