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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१३२

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निबंध-रत्नावली

बिलकुल ही कुछ न समझा। शरीर को तूने ब्रह्मार्पण अथवा अपने पिता या भाई के अर्पण कर दिया। इसका शरीर त्याग लेखक को ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई महात्मा वेदान्त की सप्तमी भूमिका में जाकर अपना दहाध्यास त्याग कर देता है। मै सच कहता हूँ कि इस कन्या की अवस्था संकल्प ही होती है। चलती-फिरती भी वह कम है। उसके शरीर की गति ऐसी मालूम होती है कि वह अब गिरी, अब गिरी। हाँ, इस सँभालनेवाले कोई और होते हैं। दो एक चंद्रमुखी सहेलियाँ इसके शरीर की रखवाली करती हैं। सारे संबंधी इसकी रक्षा में तत्पर रहते हैं। पतिवरा आर्य-कन्या और पतिवरा योरप की कन्या में आजकल भी बहुत बड़ा फर्क है। विचारशील पुरुष कह सकते हैं कि आर्यकन्या के दिल में विवाह के शारीरिक सुखों का उन दिनों लशमात्र भी ध्यान नहीं आता है। सुशीला आर्यकन्या दिव्य नभो-मंडल में घूमती है। विवाह से एक दो दिन पहले हाथों और पाँवों में महँदी लगाने का समय आता है। पंजाब में मेहँदी लगाते हैं; कहीं कहीं महावर लगाने का रिवाज है। कन्या के कमरे में दो एक छोटे छोटे बिनोले के दीपक जल रहे हैं। एक जल का घड़ा रखा है। कुशासन पर अपनी सहेलियो सहित कन्या बैठी है। संबंधी जन चमचमाते हुए थालों में मेहँदी लिए आ रहे हैं। कुछ देर में प्यारे भाई की बारी आई कि वह अपनी भगिनी के हाथों में महँदी लगाए। जिस तरह समाधिस्थ योगी के हाथों पर कोई चाहं जो कुछ करे उसे खबर नहीं होती,