सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२१
 

आचरण की सभ्यता

मातृभाषा, क्या साहित्य-भाषा और क्या अन्य देश की भाषा- सब की सब तुच्छ प्रतीत होती हैं। अन्य काई भाषा दिव्य नहीं, केवल आचरण की मौनभाषा ही ईश्वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्याख्यान किस तरह आपके हृदय को नाड़ी में सुंदरता पिरो देता है ! वह व्याख्यान ही क्या, जिसने हृदय की धुन को-मन के लक्ष्य को-ही न बदल दिया। चंद्रमा की मंद मंद हँसी का तारागण के कटाक्ष-पूर्ण प्राकृ- तिक मौन व्याख्यान का-प्रभाव किसी कवि के दिल में घुस- कर देखो। सूर्यास्त होने के पश्चात्, श्रीकेशवचंद्र सेन और महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने सारी रात, एक क्षण की तरह, गुजार दी; यह तो कल की बात है। कमल और नरगिस में नयन देखनेवाले नेत्रों से पूछो कि मौन व्याख्यान की प्रभुता कितनी दिव्य है।

प्रेम की भाषा शब्द-रहित है। नेत्रों की, कपोलों की, मस्तक की भाषा भी शब्द-रहित है। जीवन का तत्त्व भी शब्द से परे है। सच्चा आचरण-प्रभाव, शील अचल-स्थिति- संयुक्त आचरण न तो साहित्य के लंबे व्याख्यानों से गठा जा सकता है; न वेद की श्रुतियों के मीठे उपदेश से; न इंजील से; न कुरान से; न धर्मचर्चा से न केवल सत्संग से। जीवन के अरण्य में घुसे हुए पुरुष के हृदय पर, प्रकृति और मनुष्य के जीवन के मौन व्याख्यानों के यत्न से, सुनार के छोटे हथौड़े की मंद मद चोटों की तरह, आचरण का रूप प्रत्यक्ष होता है।