पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१७

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( १३ ) 1 संपादक महामहोपाध्याय पंडित दुर्गाप्रसादजी की कृपा से इनके हृदय में देशसेवा, साहित्यप्रेम आदि कई उपयोगी विचारों के अकुर उत्पन्न हुए थे सन् १८९३ मे इन्होंने जयपुर के महाराज कालेज में अंगरेजी पढ़ना प्रारभ किया। छ: ही वर्ष में सन् १८९९ में ये प्रयाग- विश्वविद्यालय की एंट्रेस परीक्षा में प्रथम हुए और कलकत्ता विश्वविद्यालय की इसी परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए ! इनकी इस सफलता के कारण जयपुर-राज्य ने इन्हें एक स्वर्ण- पदक दिया था। इसी वर्ष इन्होंने महाभाष्य पढ़ना प्रारंभ किया। सन् १९०२ में इन्होंने जयपुर के मानमदिर के जीर्णोद्धार में सहायता दी. और सम्राट सिद्धांत नामक ज्योतिष ग्रथ के कई अंशों का बहुत योग्यतापूर्वक अनुवाद किया जिसके लिये इस कार्य के अध्यक्ष दो अँगरेज सज्जनों ने इनकी बहुत प्रशंसा की । उसी समय लेफ्टिनंट गैरट के साथ इन्होंने अँगरेजी में “दा जयपुर श्राबजर्वेटरी एंड इट्स बिल्डर" नामक ग्रंथ लिखा था। दूसरे वर्ष सन् १९०३ म ये प्रयाग विश्वविद्यालय की बी०ए० परीक्षा में प्रथम हुए और इसके लिए इन्हें जयपुर-राज्य से एक स्वर्णपदक और बहुत सो पुस्तक मिलीं। ये वद और प्रस्थानत्रय का भी अभ्यास कर रहे थे। इनका विचार दर्शन- शास्त्र में एम० ए० की परीक्षा देने का था। परंतु जयपुर-राज्य के भाग्रह से खतड़ा के स्वगवासी गजा साहब के संरक्षक बनकर इन्हें अजमेर के मेयो कालेज में जाना पड़ा। आपने वहाँ संस्कृत