पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/१८

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( १४ ) के प्रधान अध्यापक पद को सुशोभित किया था। सन् १९१७ में आप जयपुर राज्य के समरस सामंतों के अभिभावक बनाए गए। मेया कालेज में काश्मीर के महाराज हरिसिंह, प्रतापगढ़ के नरेश रामसिंह, ठाकुर अमरसिंह, ठाकुर कुशलसिंह तथा ठाकुर दलपतसिंह इनके प्रिय शिष्यों में थे। सन् १९२० में ये काशी विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष होकर आए। यहाँ इन्होंने दो वर्ष के लगभग कार्य किया होगा कि ११ सितंबर सन् १९२२ को, ३९ वर्ष की अल्प आयु में, इनका स्वर्गवास हो गया। पंडितजी ने वैदिक साहित्य, भाषातत्त्व, दर्शन और पुरा- तत्त्व का अनुशीलन किया था और अँगरेजो तथा संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत, पाली और बँगला, मराठी आदि भाषाओं से भी ये पूर्णतया परिचित थे। सन् १८९७ में इनका परिचय जयपुर के स्वर्गीय जैन वैद्यजी से हुआ था। उसी समय इनका झुकाव हिंदी की ओर हुआ। दोनों सज्जनों ने मिलकर हिंदी की सेवा करने की प्रतिज्ञा की थी। तदनुसार सन् १९०० में इन लोगों ने जयपुर का नागरी भवन स्थापित किया था। इन्होंने कई वर्ष तक "समालोचक" का संपादन भी किया था। इसके अतिरिक्त और भी बहुत से पत्रों में इनके लेख प्रायः निकला करते थे। नागरी-प्रचारिणी सभा, काशी के कार्यों से ये बहुत सहानु- भूति रखते थे और बराबर उसके सदस्य रहे। जो काम ये करते