पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०४

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१६४ निबंध-रत्नावली अर्थात् सबकी नमाज कजा हो गई। प्यारा नजर भाया । सबकी ईद है। ब्रह्मर्षि “सर्व खल्विदं ब्रह्म" पुकार उठा, चीख उठा, योगनिद्रा खुल गई । ब्रह्मकांति के आकर्षण ने दसवाँ द्वार फोड़कर प्राणों को अपनी ही गति फिर दे दी। मारे परमानंद के हृदय बह गया । यहाँ गिर गया, वहाँ गिर गया । अत्यंत ज्योति के चमत्कार से साधारण आँखे फूट गई । प्रेम के तूफान ने सिर उड़ा दिया। हवनकुंड से स्याह, नीले रंग का ब्रह्म, कमलों से जड़ा हुआ ब्रह्म, मोतियों से सजा हुआ किसी ने कन्धों पर रख दिया, ब्रह्मयज्ञ हो चुका । मनुष्य-जन्म सफल हुआ। जय ! जय !! जय !!! भक्त की जिह्वा बंद हो गई। बाहु पसार जा मिला । कुछ न बोल सका। कुछ न बोला, ब्रह्म-कांति में लीन हो गया । उसके सितार के तार टूट गए । नारद की वीणा चुप हो गई। कृष्ण की बाँसुरी थम गई । ध्रुव का शंख गिर पड़ा शिव का डमरू बंद हो गया ! महात्मा पंडितजी जा रहे हैं। पुस्तकों से लदा छकड़ा साथ जा रहा है। परतु पंडितजी इन अमूल्य पुस्तकों को, छकड़े समेत, अपने सिर पर उठाए हुए हैं। वह क्या हुआ ? क्या नजर आया ? अमूल्य पुस्तकें-वेद, दर्शन इत्यादि- पंडितजी के सिर से गिर पड़ी ? छकड़ा लड़खड़ाता गंगा में बह गया। सब कुछ जल में प्रवाह कर दिया । पंडितजी का साधारण शरीर वायु में मानों घुल गया। नाचने लग गए। चाँद के साथ, सूर्य के साथ, हाथ पकड़े । नृत्य करते हुए वायु समान समुद्र की लहरों में ब्रह्मकांतिके साथ जा मिले।