पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पवित्रता १६३ सूखे बियाबानों की सनसनाहट में लोट रही है। युवती कन्या के रूप में जवानी की सुगंध फैलाती हुई वही चल रही है। नरगिस ( एक फूल ) की आँख में किस भेद से छिपी हुई है कि प्रत्यक्ष दर्शन हो रहे हैं। बालक की बोलचाल में, चेहरे में, क्या झाँक झाँक कर सबको देख रही है । खुला दरबार है । ज्योति का आनंद-नृत्य सब दिशामों में हो रहा है। मीठी वायु दर्शनानंद से चूर हो मारे खुशी के लोटती-पोट तो, लड़खड़ाती, नाचती चली जा रही है। इस ब्रह्मकांति के जोश में बादल गरज रहे हैं। बिजली चमक रही है। अहाहा ! सारा संसार कृतार्थ हुआ। जाग उठा। हाथी चिंघाड़ रहे हैं, दौड़ रहे हैं। शेर गरज रहे हैं, कूद रहे हैं। मृग फलांग मार रहे हैं। कोयल और पपीहे, बटेर, बए ( बया), कुमरी और चंडूल नंगे हो नहा रहे हैं। दर्शन दीदार का पा रहे हैं। तीतर गा रहे हैं। मुर्ग अपनी छाती में आनंद को पूरा भरकर कूक रहे हैं। ई, ई, ऊ, ऊ, कू, कू, हू, हु में वेदध्वनि, ओ३म् का आलाप हो रहा है। पर्वत भी मारे भानंद के हवा में उछल उछल नीले आकाश को फाँद रहे हैं। बदरीनाथ, केदारनाथ, जमनोत्तरी, गंगात्तरी, कंचनजंगा की चोटियाँ हँस रही हैं । वृक्ष उठ खड़े हुए हैं, इन सब की संध्या हो चुकी है। था जिनकी खातिर नाच किया जब मूरत उनकी आएगी। कहीं आप गया कहीं नाच गया और तान कहीं लहराएगी ॥