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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०७

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पवित्रता

ही फोड़ अब रोते हो क्यों? अब तो तुम्हारी प्रार्थना सुनने- वाला कोई नहीं । इस अपवित्रता के अँधेरे को जैसे तैसे सफेद करना है। इस कलंक को धोना है। इस मोतियाविंद को निकलवाना है। मैं भारतनिवासी कैसे हो सकता हूँ, जिसने अपने तीर्थों में भी, जिन तीर्थो की यात्रा से सुनते हैं अपवित्रता का कलंक दूर हो जाता था, काले संकल्पों के नाग हर किसी को डसने के लिये छोड़ रखे हैं और इसे लीला मानकर रोते समान हँस रहा हूं।

ये तिमिर के बादल कब उड़ेंगे ? पवित्रता का सूर्य मेरे अंदर कब उदय होगा ! मेरे कान में धीमी सी आवाज आई कि भारत उदय हुआ । हाय भारत का कब उदय हुआ ! जब मेरे दिल में अभी अपवित्रता की रात है, जब अभी मैंने हिमांलय, गंगा, विंध्याचल, सतपुड़ा और गोवर्द्धन को अपनी आँख के अँधेरे से ढाँप रक्खा है। भारत तो सदा ही ब्रह्मकांति में वास करता है, भारत तो ब्रह्मकांति का एक चमकता दमकता सूर्य है । जब ब्रह्मकांति के दर्शन न हुए तो भारत का कहाँ पता चलता है । भारत की महिमा पवित्रता के आदर्श में है । ब्रह्मचारी पवित्र, गृहस्थ पवित्र, वानप्रस्थ पवित्र, संन्यासी पवित्र; ब्रह्मकांति को देखना और दिखाना भारत का जीवन है। पवित्रता का देश, भारतनिवासियों का देश है, जहाँ ब्रह्मकांति का भान होता है खुले दर्शन दीदार होते हैं। भला हड्डी, मांस और चाम के शरीरों और हजारों मील लंबी चौड़ी मुर्दा की हुई