पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६८
निबंध-रत्नावली

जमीन से भी कभी भारत बनता है ! मखौल के चोचलों से क्या लाभ होता है ! भारत तो केवल दिल की बस्ती है ! ब्रह्मकांति का मानो केंद्र है ! भारत-निवासियों का राज्य तो आध्यात्मिक जगत् पर है । अगर यह राज्य न हुआ तो मुर्दा भूमि के ऊपर राज्य किस काम का ? जल न जायँ वह महल जहाँ ब्रह्मकांति से रोशनी न हो। गोली न लग जाय उन दिलों को, जहाँ प्रेम और पवित्रता के अटल दीपक नहीं जगमगाते । ऐसे बेरस बेसूद फलों के इंतजार से क्या लाभ, जो देखने में तो अच्छे और जब जतन से बाग लगाए, फल पकाए तो खाने को वे कांटे बन गए । चलो चले अपने सच्चे देश को, इस विदेश में रहने, जूते खाने से क्या लाभ? अपने घर को मुख मोड़ो ! बाहर क्या दौड़ रहे हो ?

पवित्रता का स्वरूप

पवित्रता का चिंतन करते हुए ये मेरे मन के कमरे की दीवारों पर जो चित्र लटक जाते हैं उनका वर्णन करना ही लेखक के लिये तो पवित्रता का स्वरूप जतलाना है । लेखक इस कमरे में कई बार घंटों इन चित्रों के चरणों में बैठा है-इन चित्रों की पूजा की और इनसे पवित्रता के स्वरूप को जितना हुआ अनुभव किया । चित्रों का, जो लेखक ने अपने इस बुतखाने में रखे हैं, वर्णन तो इस लेख में हो नहीं सकता परंतु जितना हो सकता है उतना संक्षेप से अर्पण करता हूँ-