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निबंध-रत्नावली

उनके कंठ मे स्वाभाविक ही शिव शिव की ध्वनि हुई । मैं पास बैठा हूँ। उनके दर्शन करते करते मेरे रोम रोम में शीतलता और सत्वगुण की बहार हो गई; मानो गंगास्नान से मेरी दरिद्रता दूर हो गई। उनकी ध्वनि की प्रतिध्वनि बहती गङ्गा के आलाप से सुनाई दे रही है । अद्भुत समय है। देखो इस चित्र को, बैठ जाओ।

(३) एक हरे हरे घास के बड़े लंबे-चौड़े मैदान के मध्य में दूध के रंग की एक नदी बह रही है । इसका जल साफ है । छोटे छोटे स्याह और काले, पीले और नीले, बड़े और छेटे शालग्राम गोता लगाए बैठे हैं। कई एक बालक नंगे हो होकर ध्वनि-प्रतिध्वनि करते करते किनारे से कूद कूदकर स्नान कर रहे हैं। कोई तैर रहे हैं। उनके सफेद सफेद पोले पीले शरीरों पर कुछ तो जल की रोशनी है और कुछ सूर्य को ज्योति की झलक है । इन शरीरों से सुगंध आ रही है। मुझसे न रहा गया । कपड़े उतार मैंने भी नगे होकर कूदना शुरू कर दिया । पाठक ! अगर तेरा भी मन चाहे तो कपड़े उतार दे और इस ठंढे जल में कूद पड़ । उन बालकों की तरह स्नान कर । मैं भी कभी कभी बाहर आकर नरम रेत के बिस्तर पर लोटता था। कुछ शरीर पर मलता था, कुछ अपने केशों पर डालता था। कभी धूप में बैठा, कभी गोता लगाया । बताओ तो अब अवस्था क्या है।

(४) एक और चित्र लटक रहा है। इसके देखते ही क्या पता क्या हुआ ? काली रात हो गई । हाथ पसारे भी कुछ