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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२०९

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पवित्रता

(१) ऊँचा पर्वत है, भासपास सुहाने देवदारु के जंगल नीचे तक खड़े हैं । मीलों लंबी बर्फ पड़ी है, इसके चरणों में नदियाँ किलोल कर रही हैं। इसके सिर पर एक-दो, कोई एक एक मील लंबे, पिघली बर्फ के कुंड भी हैं। ऊपर नीला आकाश मलक रहा है । पूर्णिमा का चाँद छिटक रहा है। ठंढक, शांति और सत्त्वगुण बरस रहा है। सुख आसन में बैठे ताड़ी लगा, खुली आँखों, मैं इस शोभा को देख रहा हूँ । आँखें खुली ही हुई जुड़ गई हैं । पलक गिराने तक की फुर्सत नहीं, मुख खुला ही रह गया है । बंद करने का अवकाश नहीं मिला । प्राणों की गति का पता नहीं । इस अपने ही चित्र के समय घड़ियाँ व्यतीत हो जाती हैं। पाठक ! बैठ जाओ, मेरी जगह अपने आपको बिठा लो और देखो जब तक आपका जी चाहे।

(२) गंगा का किनारा है, एक शिला पर भर्तृहरिजी बैठे हैं। पद्मासन लगाए हुए हैं । ब्रह्मचिंतन में लीन हैं। उनकी मुँदी हुई आँखों से एक-दो प्रेम के अश्रु निकलकर उनके तेज भरे कपोलों पर ढलककर जम गए हैं। मृग जंगल से दौड़ते आए और उनके शरीर को भी शिला जान अपने सींग खुजलाने लग गए। आकाश से एक प्यासी चिड़िया उड़ती आई है और इस लाल शिला पर गंगाजल की बूंदों को देख अपनी पीली चोंच से पी रही है । इतने में भर्तृहरिजी को समाधि खुली । भोलेपन आनंद आशचर्य से भरी हुई-पता नहीं कहाँ को देख आई है । मुझे और आसपास की चीजों को तो कदापि नहीं देख रही थी