पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७७
पवित्रता

(१७) एक नौजवान है फटी हुई बिना बटन की कमीज गले में है। सिर नंगा है। पाँव नंगा है। किसी की तलाश में है। चारों ओर देखता है। कभी इस पेड़ के और कभी उस पेड़ के पास जा खड़ा होता है। रोता है। वृक्ष भी उसके साथ रो उठते हैं। प्रेम की मदहोशी में वह गिर पड़ा है। आँसू बह रहे हैं । पृथ्वी की रज उसके बालों में विभूति की तरह लग गई है। कभी गिरता है, कभी उठता है। कभी बादल को देख. उसे जाते जाते खड़ा कर लेता है । शायद किसी को पत्र भेज रहा है। नदी से, पत्थरों से, पक्षियों से, पशुओं से बातें करता जा रहा है। अभी यहाँ था, अब नहीं है।

(१८) दमयंती राजहंसों के पास खड़ी है। नल का इंतजार कर रही है। आप भी पास बैठ जाइए। आपकी माता है, बहन है, देवी है।

(१९) एक अनाथ अजनवी अभी अपने प्राणों को त्याग, एक दरख्त के नीचे सड़क-किनारे उस नींद में सो रहा है, जिससे कभी नहीं जागेगा। अपना शरीर आपके हवाले कर गया। उसका मृत्यु संस्कार आपको करना है।

(२०) राजा जनक की सभा लगी है। ऋषि लोग बैठे हैं। ब्रह्मवादिनी गार्गी आँखों में कपिलवाली लाली लिए हुए आ खड़ी हुई है। सब आशचर्यवत् हो गए। गार्गी नंगी है, पर बिजली के जोर से यह देवी कह उठी-जाओ अभी सब शूद्र हैं चमार हैं। वह जा रही है । आकाश प्रणाम करता है, पृथ्वी काँप रही है।

१२