विचार किया ? क्यों न आपने डंके की चोट से इस अनर्थ के निवारणार्थ अपने बाद इस पुरुष की माता, पुत्री, बहन को, स्त्री को, इस नीचे पुरुष के लिये अपने सामने उच्च सिंहासन पर बिठा इसको आज्ञा दी कि बचपन से लेकर जब तक इसको ब्रह्मकांति का महाआकर्षण स्वाभाविक बुद्ध न बना दे तब तक यह अपना क, ख, ग, घ और अ, आ, इ, ई इस देवी के सिंहासन के पास बैठकर पढ़े। जो कुछ हो गया या बुद्ध पैदा ही हुआ उसे आपको भिक्षुक होने का उपदेश देने को क्या आवश्यकता थी? आपको किसने उपदेश दिया था कि आपन कपिलवस्तु राजधानी को लात मार युवावस्था ही में ब्रह्मकांति की तलाश में-उस अनजानी ज्योति के स्वरूप की तलाश में-जंगल जंगल घूम अपने शरीर को सुखा लिया, हड्डियाँ कर दिया। हे भगवन् ! आकर अब जरा देखिए तो सही, आपके बाद आज तक बुद्ध कोई न हुआ। किसी माता को आपकी माता के समान ब्रह्मकांति का दर्शन लाभ न हुआ और कोई माता भी ब्रह्मकांति को अपने गले में ले बुद्ध को अपने पेट में अनुभव न कर सकी। आपका नाम ही नाम रह गया है जिसके सहारे कई ईट पत्थर रोड़े के मंदिर खड़े हो गए। बुत बन गए परन्तु मनष्य डूब गया । इसके नीचे आ मर गया, मनुष्यता अपवित्रता की कीचड़ में फँसकर मर ही गई। जिसके बचाने के लिये आप आए थे वह न बचा!
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