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निबंध-रत्नावली

हे शंकर भगवन् ! आपसे विनयपूर्वक आज्ञा माँगकर आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ। आपको तो हिमालय भाता था, आपको तो वेद श्रुति दर्शनग्रंथ, ब्रह्मकांति के दर्शन, कोई और काम न करने देते थे। आपको कोई और हल न चलाना था। आपके दर्शने ही से सूर्य और चंद्र उसी नीली खेती में ज्योति स्वयमेव बोते थे। परंतु मैं तो एक अपने अपवित्र देशनिवासियों के विरुद्ध अपील लेकर आया हूँ। आपके जाने के बाद संन्यासाश्रम का नाश हो गया। सच कहता हूँ, मेरे देश का संन्यास अपवित्र हो गया, क्षुद्र हो गया। आपने तो इन लोगों की खातिर अपने एकांत के सुख को, जो आचार्य गौड़पाद ने भी न छोड़ा, त्यागकर इनके कल्याण के लिये दिग्विजय किया। काश्मीर से रामेशवर तक आपने ब्रह्मकांति का गायन किया। परंतु आपके जाने के बाद लोगों ने इस देश में गंगोत्तरी, हृषीकेश, केदारनाथ, बदरीनारायण को भी अपवित्र कर दिया। गेरुआ रंग को न तो पवित्र धरा पर ही रहने दिया और न आपके शरीर पर । अब तो गेरुआ रंग मखमल के तकियों पर, चमड़े की बग्घियों पर, जागीरों और मठों के एकत्र किए हुए खजानों पर रखा है। दासत्व, कमजोरी, कमीनापन, कपट का पर्दा हो रहा है।

भगवन् ! तीसरा नेत्र खोलकर जरा इस देश के गेरुआ रँगे उपदेशकों के अंदर के अंधकार को क्यों नहीं देखते ? सारा देश तो आपके पीछे इनको आपका रूप जानने लगा है।