पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८९
पवित्रता

और उस देश की माताएँ और कन्याएँ छः छः फुट ऊँची, सुर्खी और बल और तेज की हँसी लिए हुए अकेली सारे जगत् को प्रातःकाल चलकर घूमघाम शाम को घर पहुँच जायँ ।

जापान को देखो । वहाँ किसी बालक को कभी ब्रह्मचर्य का आदर्श इस जोर से, इस अगड़ रगड़ से, नलों से नहीं पिलाया जाता-जैसे यहाँ। परन्तु सबके सब फूलों के समान खिल चेहरेवाले हैं, बलवान् हैं; विद्यावाले हैं, महान् अनुभवोंवाले. हैं, उच्च उद्देश्यवाले हैं। हर कोई कहता है-

डटकर खड़ा हुआ हूँ खाली जहान में ।

और तसल्ली दिल भरी है मेरी दम में जान में ।

कोन सा प्रलय आ गया कि हमारे देश से ब्रह्मचर्य का आदश अमली तौर पर बिलकुल नष्ट भ्रष्ट हो गया ? नजर ही नहीं आता; मुझको देखो, तुझका देखो, इसको देखो, उसको देखो। सब जले भुने सड़े सड़ाए चेहरे लिए हुए आर्य ऋषियों का नाम ले रहे हैं।

बस महाराज ! ब्रह्मचर्य के इस विचित्र उपदेश को बद करो जिसमें तुमने स्त्री जाति का तिरस्कार किया है। अमली तौर से वैराग्य के घने उपदेशों से स्त्री जाति का तिरस्कार किया है। ब्रह्मचर्य अब इस अपवित्र देश में बिना मातृ-भक्ति के, कन्या पूजा के कभी स्थापित नहीं हो सकता । इस देश में क्या, कहीं भी ऐसा नहीं हो सकता । ऐसा ही उपदेश करत करते ईसा की हार हुई । बुद्ध की हार हुई, शंकर का दिग्विजय हार