पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६६
निबंध-रत्नावली

ब्रह्मचर्य का उलटा उपदेश

ब्रह्मचयर्य का उपदेश इस देश में प्राचीन काल से चला आया है और आजकल कोई भी समाज हो, मंदिर हो, सभा हो, सत्संग हो, जहाँ इस देश में ब्रह्मचयर्यपालन के ऊपर उत्तम से उत्तम व्याख्यान और उपदेश न होते हों, परन्तु अपने दैनिक जीवन को देखो । कल यदि सात फुट लबे आदमी थे तो आज छः फुट रह गए । कल के कालिजों में तो पाँच फुट के बालक पढ़ते थे आज चार फुट के ही रह गए । क्या उलटा परिणाम है । न हृदय में बल, न बुद्धि में शक्ति, न मन में साहस, न उच्च विचार, न पवित्र जीवन, न दया, न धर्म, न धन, न माल और इस देश में जहाँ ब्रह्मर्षियों ने संसार के आदि में गाया था :-

तेजोऽसि तेजो मयि धेहि । वीर्यमसि वीर्यं मयि धहि । बलमसि

बलं मयि धेहि । अोजोऽस्योजो मयि धेहि । मन्युरसि मन्युं मयि

धेहि । सहोऽसि सहो मयि धेहि ॥६॥ य०१६।६॥

और अफ्रीका के हबशी जिनका ब्रह्मचयर्य का आदर्श कभी स्वप्न में भी नहीं आया, वे हमसे लंबे, हमसे चौड़े और हमसे अधिक पराक्रमी हैं।

इंगलैंड में जहाँ इस पर कभी इतना जोर न दिया गया, वहाँ के आजकल के लड़के भी हम से अधिक लंबे, चौड़े, बलवान, तेजस्वी, ज्ञानवान्, विद्वान, संपत्तिमान्, बुद्धिमान् हैं। हमारी कन्याएँ दुबल, पीले रंग की, जवानी में भी बुड्ढी सी