पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२६७

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संगीत

के मुंह से कहलाया है। प्रजा भी अपने भविष्यशून्य सिंहासन को देखकर दु:खी थी । इसी अवसर में नाटक के समान घटना से दो गानेवाले जोड़ले भाई, जो 'कुशीलव' कहलाते थे, रंगमंच पर आते है और रामचंद्र और अयोध्यावासी उन्हें अपना मान लेते हैं । इस समय कुशीलव का और कोई अर्थ नहीं है, यह उन दोनों भाइयों का जुड़ा हुआ नाम है। अब हाट-बाट में, घर घर में, कुशीलवों की चर्चा फैल गई । “देखो, ये कुशीलब कितना अच्छा गात हैं कि सुनते-सुनते हमारे राजा को अश्रु आ गए! क्यों भर, पहल भी कभी ऐसे कुशीलव सुने गए थे ? अपनी अयोध्या में ऐसे किनने कुशीलव हैं ? जी, अयोध्या की गिनती क्या, आर्यावर्त में इन जैसे कुशीलव नहीं हैं।" वा-मीकि को आता देखकर लोग अंगुली उठा उठाकर कहने लगते हों, 'देखो यह कुशील बों का गुरु अाया! क्या यह और भी कुशीलव तैयार कर रहा है ? शायद नायिकाओं ने अपन विदग्ध नायकों से कहा हो कि 'हमें रिझाना हो तो कुशी- लव बनकर आओ ।' और किसी पिता ने जब देखा हो कि

बेटा दूकान को न सम्हालकर दिन भर ताना रीरो में लगा


अप्रतिष्ठे रघुज्येष्ठे का प्रतिष्ठा कुलस्य नः ।
इति दुःखेन पीड्यन्त त्रयो नः पितरोऽपरे ।
मनोरथस्य यद्बीजं तद्द वन दितो हतम् ।
लतायां पूर्वलूनायां प्रसूनत्यागम: कुतः ।

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