(१४) देवकुल
हर्षचरित के प्रारंभ में महावि बाण ने भास के विषय में यह श्लोक लिखा है
सूत्रधकृत रम्भैनाटकैहुभूमिकैः ।
सपत कैशो लेभे भासो देवकनैरिव ।।
अर्थात् जैसे कोई पुण्यात्मा देवकुल ( देवालय ) बनाकर वश पाता है वैसे भास ने नाटकों से यश पाया। देवकुलों का आरंभ सूत्रधार ( राजमिस्त्री) करते हैं, भास के नाटकों में भी नांदी रंगमंच पर नहीं होती, पर्दै को प्रोट में ही हो जाती है। नाटक का आरंभ 'नान्यन्ते ततः प्रविश ते सूत्रधार:.' नांदो के पीछे सूत्रधार हो श्राकर करता है। मंदिरों में कई भूमिकाएं (खंड या चोक ) होते हैं, भास के नाटको में भी कई भूमिकाएँ (पाटे) हैं। मंदिरों पर पताकाएँ ( धजाएँ) होती हैं, इन नाटकों में भी पताका (नाटक का एक अंग ) होती हैं । यो इव कुल सदश नाटक से भास ने यश पाया था। किंतु आधुनिक ऐतिहासिक खेज में यह एक बात और निकली कि भास ने 'देवकुल' से ही यश पाया । महामहोपाध्याय पंडित गणपति शास्त्रो के अध्यवसाय से द्रावकार में भास के कई नाटक उपलब्ध हुए हैं। वे त्रिवेंद्रम संस्कृत ग्रंथमाला में छपे हैं। उनमें एक प्रतिमानाटक भी है। उसका नाम ही प्रतिमा यो रखा गया है कि कथानक का विकास
२२९