पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२८३

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देवकुल

 उसने 'टियांतनीस' की राजधानी उज्जैन का उल्लेख किया है। चश्तन भी शक होना चाहिए, वह कनिष्क का पुत्र हो, या निकट संबंधी हो । अतएव कनिष्क का समय ईसवी सन् ७० से सन् १३० के बीच होना चाहिए, ईसवी पूर्व की पहली शताब्दी नहीं।

भास के लेख तथा शैशुनाक, सातवाहन और कुशन राजाओं के देवकुलों क मिलन से प्रतीत होता है कि राजवंशों में मृत राजाओं की मूर्तियों को एक देवकुल में रखने की रीति थी।
देवपूजा का पितृपूजा से बड़ा संबंध है । देवपूजा पितृपूजा से ही चली है । मंदिर के लिये सबसे पुराना नाम चैत्य है, जिसका अर्थ चिता ( दाह-स्थान ) पर बना हुआ स्मारक है। शतपथ ब्राह्मण में उल्लख है कि शरीर को भस्म करके धातुओं में हिरण्य का टुकड़ा मिलाकर उन पर स्तूप का चयन (चुनना) किया जाता था । बुद्ध के शरीर-धातुओं के विभाग तथा उन पर स्थान-स्थान पर स्तूप बनने को कथा प्रसिद्ध ही है। बौद्धों तथा जैनों के स्तूप और चैत्य पहले स्मारक चिह्न थे, फिर पूज्य हो गए।

देवकुल शब्द का बड़ा इतिहास है। मन्दिर को राजपताने में देवल कहते हैं, छोटी मढ़ी को देवली कहते हैं। समाधि. स्तंभों को भी देवली, देउली या देवल कहते हैं। शिलालेखों में मन्दिरों को देवकल कहा है, सतियों तथा वीरों के स्मारक-चिह्नों को भी देवल या देवली कहा है । देवली का संस्कृत देवकुलो . या देवकुलिका लेखों में मिलता है। पुजारी को 'देवलक' कहते