पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२९१

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(१५) पुरानी हिंदी

हिंदुस्तान का पुगने से पुराना साहित्य जिस भाषा में मिलता है उसे संस्कृत कहते हैं, परंतु, जैसा कि उसका नाम ही दिखाता है, वह आर्यो की मूल भाषा नहीं है। वह मॅजी, छंटी, सुधरी भाषा है। कितने हजार वर्ष के उपयोग से उसका यह रूप बना, किस 'कृत' से वह 'संस्कृत' हुई, यह जानने का कोई साधन नहीं बच रहा है। वह मानो गंगा की नहर है नरौने के बाँध से उसमें सारा जल बैंच लिया गया है, उसके किनारे सम हैं, किनारों पर हरियाली और वृक्ष हैं. प्रवाह निय- मित है। किन टेढ़े-मेढ़े किनारों वाली, छोटी बड़ी, पथरीली रेतीली नदियों का पानी मोड़कर यह अच्छोद नहर बनाई गई और उस समय के सनातन-भाषा-प्रेमियों ने पुरानी नदियों का प्रवाह 'अविच्छिन्न' रखने के लिये कैसा कुछ आंदोलन मचाया या नहीं मचाया, यह हम जान नहीं सकते। सदा इस संस्कृत नहर को देखते-देखते हम असंस्कृत या स्वाभाविक, प्राकृतिक नदियों को भूल गए। और फिर जब नहर का पानी आगे स्वच्छंद होकर समतल और सूत से नपे हुए किनारों को छोड़कर जल स्वभाव से कहीं टेढ़ा, कहीं सीधा, कहीं गॅदला, कहीं निखरा, कहीं पथरीली, कहीं रेतीला भूमि पर और कहीं पुराने सुखे मार्गों पर प्राकृतिक रीति से बहने लगा तब हम यह कहने लगे

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