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निबंध-रत्नावली

अस्तु । अकृत्रिम भाषा प्रवाह में (१) छंदस् की भाषा, (२) अशोक की धर्मलिपियों की भाषा, (३) बौद्ध ग्रंथों की पाली, (४) जैन सूत्रों की मागधी, (५) ललितविस्तर की गाथा या गड़बड़ संस्कृत और ( ६ ) खरोष्ठी और प्राकृत शिला- लेखों और सिक्कों की अनिर्दिष्ट प्राकृत-ये ही पुराने नमूने हैं। जैन सूत्रों की भाषा मागधी या अर्धमागधी कही गई है। उसे आर्ष प्राकृत भी कहते हैं। पीछे से प्राकृत वैयाकरणों ने मागधी, अर्धमागधी, पैशाची, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि देशभेद के अनुसार प्राकृत भाषाओं की छाँट की, किंतु मागधीवाले कहते हैं कि मागधी ही मूल भाषा है जिसे प्रथम कल्प के मनुष्य, देव और ब्राह्मण बोलते थे । जिन पुराने नमूनों का हम उल्लेख कर चुके हैं, वे देश-भेद के अनुसार इस नामकरण में किसी एक में ही अंतर्भूत नहीं हो सकते । बौद्ध भाषा संस्कृत पर अधिक सहाग लिए हुए है, सिक्को तथा लेखां की भाषा भी वैसी है। शुद्ध प्राकृत के नमूने जैन सूत्रों में मिलते हैं। यहाँ

दो बातें और देख लेनी चाहिए। एक तो जिस किसी ने प्राकृत


  • हेमचंद्र ने 'जिणिन्दाण वाणी' को देशीनाममाला के प्रारंभ में

'श्रसेसभासपरिणामिणी' कहकर वंदना करते हुए क्या अच्छा अवतरण दिया है-

देवा दैवीं नरा नारी शबराश्चापि शाबरीम् ।
तिर्यञ्चोऽपि हि तैरवीं मेनिरे भगवगिरम् ।।