पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२९३

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पुरानी हिंदी

श्रादि में चला, (२) देवैः की जगह देवेभिः (अधरेहि ) कहने की स्वतंत्रता प्राकृत को रिक्थक्रम ( विरासत ) में मिली, संस्कृत को नहीं, (३) संस्कृत में तो अधिकरण का 'स्मिन् सर्वनाम में ही बँध गया, किंतु प्राकृत में 'म्मि, म्हि' होता हुथा हिंदी में में तक पहुँचा, (४) वैदिक भाषा में षष्ठी या चतुर्थी के यथेच्छ प्रयोग की स्वतंत्रता थी वह प्राकृत में आकर चतुर्थी विभक्ति को ही उड़ा गई, किंतु संस्कृत में दोनों, पानी उतर जाने पर चटानों पर चिपटी हुई काई की तरह, जहाँ की तहाँ रह गई, (५) वैदिक भाषा का व्यत्यय' और 'बाहुलक' प्राकृत में जीवित रहा और परिणाम यह हुआ कि अपभ्रंश में एक विभक्ति 'ह', 'है', ही, बहुत से कारकों का काम देने लगी, संस्कृत की तरह लकीर ही नहीं पिटती गई, (६) संस्कृत में पूर्वकालिक का एक 'वा' ही रह गया और 'य' भिंच गया, इधर 'स्वान' और 'स्वाय' ओर 'य' स्वतंत्रता से आगे बढ़ पाए (देखो, आगे)। क्रिया क्रिया के कई रूपों में से ( जो धातुज शब्दों के द्वितीया, षष्ठी या चतुर्थी के रूप हैं ) संस्कृत के हिस्से में 'तुम्' ही आया और इधर कई, (८) कृ धातु का अनुप्रयोग संस्कृत में केवल कुछ लंबे धातुओं के परोक्ष भूत में रहा, छंदस् की भाषा में और जगह भी था, किंतु अनुप्रयोग का सिद्धांत अपभ्रंश और हिंदी तक पहुँचा। यह विषय बहुत ही बढ़ाकर उदाहरणों के साथ लिखा जाना चाहिए, इस समय केवल प्रसंग से इसका उल्लेख ही कर दिया गया है।