पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/३८

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(२) रामलीला

आर्य-वंश के धर्म-कर्म और भक्ति-भाव का वह प्रबल प्रवाह जिसने एक दिन जगत् के बड़े बड़े सन्मार्ग-विरोधी भूधरों का दर्पदलन कर उन्हें राज में परिणत कर दिया था और इस परम पवित्र वंश का वह विश्वव्यापक प्रकाश जिसने एक समय जगत् में अंधकार का नाम तक न छोड़ा था, अब कहाँ है? इम गूढ़ एवं मर्मस्पर्शी प्रश्न का यही उत्तर मिलता है कि, 'वह सब भगवान महाकाल के महापेट में समा गया।' निम्संदेह हम भी उक्त प्रश्न का एक यही उत्तर देते हैं कि वह सब भगवान महाकाल के महापेट में समा गया।'

जो अपनी व्यापकता के कारण प्रसिद्ध था, अब वह प्रवाह वा प्रकाश भारतवर्ष में नहीं है, केवल उसका नाम ही अवशिष्ट रह गया है। कालचक्र से बल, विद्या, तेज, प्रताप आदि सब का चकनाचूर हो जाने पर भी उनका कुछ कुछ चिह्न वा नाम बना हुआ है। यही डूबते हुए भारतवर्ष का सहारा है और यही अंधे भारत के हाथ की लकड़ी है।

जहाँ महा-महा महोधर लुढ़क जाते थे और जहाँ अगाध अतलस्पर्श जल था, वहाँ अब पत्थरों में दबी हुई एक छोटी सी किंतु सुशीतल वारिधारा बह रही है. जिससे भारत के विदग्ध जनों के दुग्ध हृदय का यथाकथंचित् संताप दूर हो रहा है।