पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
श्रीपंचमी

गिड़गिड़ाने और हाहा खाने पर भी बिना टका लिए चार पाँच पंक्ति लिखना मूर्खता समझते हैं, उन अर्थपिशाच पापियों का इस सारस्वतोत्सव में लेखनो-पूजन का क्या अधिकार है? वे शारदा के कुपुत्र माता सरस्वती के दरबार में किस मुँह से आ सकते हैं?- यह आप ही सोच लें।

इसमें संदेह नहीं यदि हमारे कार्य्यों की छानबीन की जाय, तो हम इस योग्य कदापि नहीं ठहर सकते कि सरस्वती देवी को 'मा' कहकर पुकारें, तथापि 'मा' अंत को मा ही है। “कुपुत्रों जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति"। इसलिये आइए पाठक श्रीपंचमी के वार्षिकोत्सव में सब पापों की क्षमा माँग कर जगदंबा से प्रार्थना करें कि-

"वेदाः शास्त्राणि सर्वाणि नृत्यगीतादिकं च यत्।
न विहीनं त्वया देवि ! तथा मे सन्तु सिद्धयः।।
लक्ष्मी मेघा धरा पुष्टिः गौरी तुष्टिः प्रभा घृतिः।
एताभिः पाहि तनुभिरष्टाभिर्मां सरस्वति !॥