पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/५५

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सब मिट्टी हो गया

मा! देखें उस कुरुक्षेत्र में कितनी कठोर मृत्तिका हो गई! भीष्मदेव का पतनक्षेत्र किन पाषाणों में परिणत हो गया! कपिल, गौतम की शेषशय्या का कितना ऊँचा आकार हो रहा है! उज्जयिनी की विजयिनी भूमि में कैसी मधुमयी धारा चल रही है! अहा! अहा! तुम्हारे अंग में किस प्रकार पादस्पर्श करें? मा! तुम्हारे प्रत्येक परमाणु में जो रत्न के कण हैं वे अमूल्य हैं, क्षयरहित हैं और अतुल है।

जगदंबा सती के पादस्पर्श से जो मृत्तिका पवित्र हुई है, पतिनिंदा को सुनकर जहाँ सती का शरीर धरती में मिला है, वे सभी क्षेत्र तो वर्तमान है। मा! फिर पैर कहाँ रखा जाय? वृंदावन विपिन में अभी भी तो वंशी बज रही है। मा! किस सहृदय के किस सचेतन के कान में वह वंशी नहीं बजती? अब तक भी यमुना का कृष्ण जल है मा! वियोगिनी व्रजबालाओं की कज्जलाक्त अश्रुधारा का यह माहात्म्य है! गृहत्यागिनी प्रेमो- न्मादिनी राधिका की अनंत प्रेमधारा ही मानो यमुना के 'कल कल" शब्द के ब्याज से 'हा कृष्ण! हा कृष्ण!' पुकारकर इस धारा को सजीव कर रही है। यह देख, अभागिनी जनकतनया की दंडकारण्य-विदारी हाहाकार-ध्वनि, भवभूति के भवनपार्श्व-वाहिनी गोदावरी के गद्गद नाद में अच्छी तरह सुन पड़ती है।

और उस अभागिनी तापसकन्या शकुंतला ने जो कुछ दिन के लिये राजरानी हुई थी एवं अंत में उस राजराजेश्वर पति से