पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८
निबंध-रत्नावली

अपमानित, उपहासित होकर परित्यक्त दशा में पालक पिता के शिष्यों से रूखे और मर्मभेदी शब्दों से धमकाई और त्यागी गई कहीं भी आश्रय न पा, कुररी की तरह विकल कंठ से जो तुमसे कहा था-'भगवति वसुंधरे! देहि में अंतरम्' वह आज भी कानों में गूँज रहा है। मा! वह शब्द अब भी हृदय को व्यथित कर रहा है।

मा! तुम्हारे रत्न कहाँ नहीं हैं, किस रेणु में तुम्हारे रत्न नहीं हैं?

"कोटि कोटि ऋषि पुरुष तन, कोटि कोटि नृप सूर।
कोटि कोटि बुध मधुर कवि, मिले यहाँ की धूर॥"

इसलिये तुम्हारी समस्त मृत्तिका पवित्र है। रज मस्तक पर चढ़ाने योग्य है। तुम्हारे प्रत्येक रेणु में ज्ञान, बुद्धि, मेधा, ज्योति, कांति, शक्ति, स्नेह-भक्ति, प्रेम-प्रीति विराज रही है! तुम्हारे प्रत्येक रेणु में धैर्य, गाम्भीर्य, महत्त्व, औदार्य, तितिक्षा, शौर्य देदीप्यमान हो रहा है। तुम्हारी प्रत्येक रज में शांति, वैराग्य, विवेक, ब्रह्मचर्य, तपस्या और तीर्थ निवास कर रहे हैं। हम अन्धे हैं, इन सबको देखकर भी नहीं देख सकते। गुरुदेव ने सुना दिया है, सुनकर भी नहीं सुनते। नित्यकृत्य प्रातःकृत्य स्मरण करके भी स्मरण नहीं करते। हा! मा! तुम्हारी पवित्र मृत्तिका मस्तक पर चढ़ा, एक बार भी तो मुख से नहीं कहते-

अश्वकान्ते रथकान्ते विंष्णुकान्ते वसुंधरे।
मृत्तिके हर में पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम्॥