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निबंध-रत्नावली

इसी समय हरदयाल फिर आ पहुँचा। कहने लगा- 'चाचा! खूब हुआ, अब उसे कुछ न मिलेगा- यह सुनकर वह रो रहा है।' मैं बोला- "हरदयाल! मैं भी तो रो रहा हूँ।" वस्तुतः इस समय मैं भावविह्वल हो रहा था। दोनों नेत्र जल से छल छल कर रहे थे। हरदयाल ने मेरी ओर देखकर कहा- "क्यों चाचा! तुम रोते क्यों हो? खिलौना फूट गया है, इसी लिये क्या? खिलौना तो खरीदने पर फिर भी मिल सकता है।" मैंने कहा- "हाँ, खिलौना खरीदने पर फिर भी मिल जायगा, इसलिये नहीं रोता। जो खरीदने पर फिर नहीं मिलता, उसी के लिये रोता हूँ।"

दूसरी ओर से श्रीधर के रोने की आवाज आई। बालक की सांत्वना के निमित्त स्वयं मुझको उठना पड़ा। मैंने विषयां- तर में मन लगाया। इस प्रकार मेरी चिंता का स्रोत अर्द्धपथ ही में आकर रुक रहा। रुक जाय, समझनेवाले इसी से एक प्रकार का सिद्धांत निकाल सकते हैं। अर्थात् “सब मिट्टी हो गया" इस बात को लोग जिस प्रकार कहते हैं, 'मिट्टी से सब होता है' यह बात भी उसी प्रकार कही जा सकती है। कोई कंचन को मिट्टी करता है और कोई मिट्टी का कंचन बना डालता है। सब समझ की बलिहारी है! अच्छा, जरा बालक को समझा आऊँ।