सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३९
अयोध्या

“सा योजने च द्वे भूयः सत्यनामा प्रकाशते ।"

अर्थात् द्वादश योजन लंबी और तीन योजन विस्तृत महा- पुरी में दो योजन अंश परिखा आदि द्वारा विशेष सुरक्षित हो 'अयोध्या"(जिसे शत्रु जोत न सके) के नाम को अधिक सार्थक करता था । राजधानी अयोध्यापुरी के चारों ओर प्राकार (कोट) था। प्राकार के ऊपर नाना प्रकार के शतन्ना आदि सैकड़ों यंत्र रखे हुए थे। इससे यह सिद्ध होता है कि उस समय में तोप की तरह किले को बचाने के लिये कोई यंत्र-विशेष होता था। शतघ्री को यथार्थ तोप कहने में हमें इसलिए संकोच है कि उससे पत्थर फेंके जाते थे। बारूद का कुछ काम न था। महर्षि बाल्मीकि बारूद का नाम भी नहीं लेते। यद्यपि किसी किसी जगह टीकाकारों ने 'अग्निचूर्ण' वा 'औब्ब, के नाम से बारुद को मिलाया है, पर उसका हमने प्रकृत में कुछ भी उपयोग नहीं पाया । अस्तु ।

कोट के नीचे जल से भरी हुई परिखा (खाई) थी। पुरी के उत्तर भाग में सरयू का प्रवाह था । सुतरां उधर परिखा का कुछ भी प्रयोजन न था । उधर सरयू का प्रबल प्रवाह ही परिखा का काम देता था। किंतु संभव है कि नदी के तट पर भी नगरी का प्राकार रहा हो । नगरी के तीन ओर जो खाई थी अवश्य वह जल से भरी रहती थी, क्योंकि नगरी के वर्णन के समय महर्षि वाल्मीकि ने उसका 'दुर्गगंभीर-परिखा' विशेषण दिया है । टीकाकार स्वामी रामानुजाचार्य्य ने इसको