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निबंध-रत्नावली


व्याख्या में कहा है कि “जलदुर्गेण गंभीरा अगाधा परिखा यस्याम्"। इससे समझ में आता है कि जलदुर्ग से नगरी की समस्त परिखा अगाध जल से परिपूर्ण रहती थी। सुतरां इन परिखाओं में जल भरने के लिये किसी तरह का कौशल था.इस विषय में कुछ संदेह नहीं ।

संभव है कि नगरी के चारों ओर चार द्वार रहे हों । सब द्वारों का नाम भी अलग अलग रखा गया होगा, किंतु हमें एक द्वार के सिवाय और द्वार का नाम नहीं मिलता । नगरी के पश्चिम ओर जो द्वार था उसका नाम था “वैजयंत द्वार"। शत्रुघ्न सहित राजकुमार भरत जब मातुलालय गिरि- ब्रज नगर से अयोध्या आए थे तब इसी द्वार से प्रविष्ट हुए थे। यथा-

"द्वारेण वैजयतेन प्राविशच्छांतवाहनः ।"

नगरी से जो पूर्व की ओर द्वार था, उसी से विश्‍वामित्र के साथ राम लक्ष्मण सिद्धाश्रम वा मिथिला नगरी में गए थे। किंतु दक्षिण का द्वार राम-लक्ष्मण और सीता की विषादमयी स्मृति के साथ अयोध्यावासियों को चिरकाल तक याद रहा था, क्योंकि इसी द्वार से रोती हुई नगरी को छोड़कर राम, लक्ष्मण और सीता दंडक वन में गए थे, और इसी द्वार से रघुनाथ जी की कठोर आज्ञा के कारण जगज्जननो किंतु मंदभागिनी सीता को लक्ष्मण वन में छोड़कर आए थे । उत्तर की ओर जो द्वार था उसके द्वारा पुरवासी सरयू तट पर पाया जाया करते थे।