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निबंध-रत्नावली


शोभा बढ़ाई । राजा के बिना राजधानी कैसी ? अयोध्या थोड़े ही .दिनों पीछे आपसे आप श्रीहीन हो गई। अयोध्या की दुर्दशा के समाचार सुन महाराज कुश फिर अयोध्या में आए और कुशावती ब्राह्मणों को दान कर पूर्वजों की प्यारी राजधानी और उनकी जन्मभूमि अयोध्या ही में रहने लगे।

कविकुलकलाधर महाकवि कालिदास ने रघुवंश काव्य के १६वें सर्ग में कुशपरित्यक्ता अयोध्या का वर्णन अपनी ओजस्विनी अमृतमयी लेखनी से किया है, जिसको पढ़कर आज दिन भी सरस हृदय रामभक्तों का हृदय द्रवीभूत होता है। यद्यपि महाकवि ने यह उस समय का पुराना चित्र उतारा है, पर हाय हमारे मंद अदृष्ट से वर्तमान में भी तो वहीं वर्तमान है। भेद है तो यही है कि उस समय भगवती अयोध्या की पुकार सुननेवाला एक सूर्य्यवंशी विद्यमान था किंतु अब वह भी नहीं रहा!

कोई जड़ जीव सुने या न सुने; परंतु अयोध्या की वह हृदय- बिदारिणी पुकार सरयू के कल कल शब्द के साथ 'हा राम ! हा राम !' करती हुई अभी तक आकाश में गूँज रही है। उस प्राचीन दृश्य को विगतजीव हिंदू समाज भूले तो भूल सकता है, परंतु अयोध्या की अधिष्ठातृदेवी किस प्रकार भूल सकती है?

महाभारत के महासमर तक अयोध्या बराबर सूर्य्यवंशीयों की राजधानी रही । उस युद्ध में कुमार अभिमन्यु के हाथ से अयोध्या का अंतिम सूर्य्यवंशी महाराज 'बृहदवल' मारा गया।