इसके बाद इस राज्य पर ऐपी तबाही आई कि अयोध्या बिलकुल उजड़ गई । सूर्य्यवंश अंधकार में लीन हो गया। इस वंश के लोग दूसरों के अधीन हुए । प्राणों का मोह बढ़ा और स्वाधीनता नष्ट हुई । उदयपुर के धर्म्मात्मा राणा, जोधपुर के ग्णवँकुरे राठोड़ और जयपुर के प्रतापी क्छवहि इसी
सूर्य्यवंशी-रूपी महावृक्ष की बची-बचाई शाखाएँ हैं
महाभारत तक का वृत्तांत पुराणों में मिलता है पर रस' पीछे का कुछ वृत्तांत जाना नहीं जाता कि अयोध्या में कब क्या हुआ और किसने क्या किया। परंतु शाक्यासिंह बुद्धदेव के जन्म से फिर अयोध्या का पता चलता है और कुछ कुछ वृत्तांत भी मिलता है। कारण बुद्ध देव कपिलवस्तु में उत्पन्न हुए, श्रावस्ती में रहे और कुशीनगर वा कुशीनर में निर्वाण को प्राप्त हुए। ये सब स्थान कोशल देश में विद्यमान थे । बुद्धमत के ग्रंथों से जाना जाता है कि उन दिनों कोशल वा अवध की राजधानी का राजसिंहासन 'श्रावस्ति'को मिल गया था। यह वही प्रसिद्ध श्रावस्ति है जिसे श्री रामचंद्रदेव के कनिष्ठ पुत्र लव ने 'शरावतो' के नाम से बसाकर,अपनी राजधानी बनाया था। इसी का नाम जैनियों के प्राकृत ग्रथों में ‛सवंधी' है।अब यह अयोध्या के पास उत्तर दिशा में महाराज बलरामपुर के इलाके गोंडा के जिले,में व्जड़ी हुई जल में पड़ी है। वहाँवाले इसे ‛सहेत महेत' कहते हैं। ईसवी की सप्तम शताब्दी में ‛ह्येन्त्सांग' नामक प्रसिद्ध बौद्धयात्री भारतवर्ष में आया था । उसने अयोध्या के साथ श्रावस्ति