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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/९३

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धृति और क्षमा

समान देश में निरंतर भ्रमण करना होगा और मीरा के समान हर्षपूर्वक हलाहल भी पान करना पड़ेगा। यदि ऐसे कार्य के लिए तुम बद्धपरिकर हो, तब तो तुम्हारे अधिकारी होने में संदेह नहीं। और यदि इसके लिए तुम तैयार नहीं हो, तो समझ रखा कि यह मार्ग सहज नहीं है-

"तरस्य धारा निशितः दुरत्यया दुर्ग पथस्तन कवयो वदति ।"

भगवद्गीता में सात्त्विकी, राजसी, तामसी भेद से धृति तीन प्रकार की कही है जैसे-

"धृत्या यया धारयते मन:प्र. सेंद्रियक्रिया ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।।
यया तु धर्मक मार्थान् धृत्या धारयतेऽजुन ।
प्रसंगेन फलाकांक्षी, धृतिः सा पार्थ राजसी ।।
यया स्वप्न भयं शोकं विपादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥"

(१८-३३, ३४, ३५ )

इसका तात्पर्य यह है कि वह धृति सात्त्विकी है ( मोक्ष की साधन ) जो अहैतुको हो, जैसे प्रह्लाद की। वह धृति राजसी है (त्रिवर्ग की साधन ) जो हैतुकी हो, जैसे ध्रुव की और वह धृति तामसी है जिससे मद-मोह आदि का धारण किया जाय, जैसे दुर्योधन की। सबसे उत्तम प्रह्लाद का विचार है जिसमें तन्मयता के अतिरिक्त किसी कामना की गंध तक नहीं । इसी लिए वह सात्विक और मोक्ष का उपयोगी समझा गया। ध्रव का विचार