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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/९२

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निबंध-रत्नावली

संपति हू चलि जाहु रहो अथवा अंगणित धन।
अब हि मृत्यु किन होहु होहु अथवा निश्चल ठून ।।
पर न्याय-वृत्ति को तजत नहिं जो विवेक गुण-ज्ञान-निधि ।
यह संग सहायक रहत नित देत लोक-परलोक-सिधि ॥"

धर्म का मार्ग बड़ा कठिन है । उसमें मनुष्य की बड़ी भयानक परीक्षा होती है । उस आपत्काल में बचने के लिए धैर्य की बड़ी भारी आवश्यकता है । यदि विपत्ति के समय धैर्य ज्यों का त्यों बना रहा, तब तो विपत्ति की भी वहीं इतिश्री समझिए और यदि उस समय कहीं धैयच्युति हो गई, तब फिर दुःखों का कहीं अंत नहीं है । इसी लिये हमारे कवियों ने विपत्काल को धैय की परीक्षा का उत्तम काल ठहराया है, जैसे-

"विपदि धैर्यमथाभ्युदये इमा” "
"धीरज धर्म मित्र अ नारी । आपत्काल परखिए चारी ।।

इत्यादि वाक्य हैं।

जो पुरुष अपने को धार्मिक वा हरिभक्त बनाया चाहे उसे समझ लेना चाहिये कि एक दिन उसे प्रह्लाद के समान अग्नि में बैठना पड़ेगा, ध्रुव के समान लोभ का त्याग करना होगा और भीष्म के समान जीवन परार्थ बिताना पड़ेगा। वह युधिष्ठिर के सदृश पुनः पुनः अपमानित होगा, द्रौपदी के समान सताया जायगा और उसको हरिश्चंद्र की तरह पुत्र-कलत्र आदि से हाथ धोने पड़ेंगे, एवं रंतिदेव को नाई भोजन के भी लाले पड़ जायँग्रे, उसे कुमारिल भट्ट के समान जीते जी जलना पड़ेगा, शंकर के