नहीं कर सकना तो भी क्या इस बात के लिये वह प्रशंसनीय नहीं है कि वह रो सकता था, पर रोया नहीं। हमारा बुरा चिंतन भी कर सकता था पर उसने वैसा नहीं किया, प्रत्युत उसके चित्त में इसके प्रतिकूल विकार तक न हुआ!
गृहस्थ के लिए क्षमा अत्यावश्यक है जैसा कि-
'यूरस्थस्तु क्षमायुक्तो न गृहेगण गृही भवेत् ।"
अर्थात् केवल घर बनाने से काई गृहस्थ नहीं होता, वरन् क्षमा-युक्त होने से गृहस्थ बनता है। यदि गृहस्थ क्षमाशील न हो, तो दिन-गत उसको कलह करना पड़े और गाहस्थ का सब सुख मिट्टी में मिल जाय, मुकद्दमेबाजी में समस्त धन लुट जाय और फिर कोई कौड़ी को भी न पूछे कि आपका क्या हाल है। इसलिए नीतिविशारदों ने कहा है कि जिसके हाथ में क्षमारूपी खड्ग है उसका दुर्जन क्या कर सकता है।
महाभारत में लिखा है कि वनवास के समय अपनी शोचनीय दशा देखकर वीरनारी द्रौपदी से चुप न रहा गया। कौरवों से युद्ध करने के लिए उसने महाराज युधिष्ठिर को इस प्रकार के तीव्र वचन सुनाए जिनको सुनकर एक बार तो कायर पुरुष भी अपनी जान पर खेल जाय और आगा-पीछा साचे बिना युद्ध कर बैठे। किंतु धर्मपुत्र युधिष्ठिर उन असह्य वचनों का जो निर्वासिता तिरस्कृता और सुदुःखिता विदुषी द्रुपदनन्दिनी के मुँह से निकले थे सुनकर कुछ भी क्रोधित न हुए पर उन्होंने अनेक प्रकार से क्षमा ही की महिमा दिखाई जिसका तात्पर्य है कि