म्भर है कि योही ढचरा चला जाय तो और भी बढकर भारतीयत्व के पक्ष में बुरा फल दिसावै।
वहीं विदेश के बुद्धिमान तनिक भी हमारे सद्विचा-भडार जे परिचित होते हैं तो प्राचीनकाल के महपियों की बुद्धि पर रलि २ जाते हैं, परंच बहुतेरे उनकी प्रज्ञा पर भी चलने लगने हैं, और इसके पुरस्कार में परमात्मा उन्हें सुख सुयश का भागी प्रत्यक्ष में बना देता है, तथा परोक्ष के लिए अनन्त मनल का निश्चय उनकी आत्मा को श्राप हो जाता है। यह खकर भी जिन हिदू की आखें न खुलें, और इतना न सूझे कि जिन दिव्य रत्नों को दूर २ के परीक्षक भी गौरव से देखते हैं, उन्हें फाच यतलाना अपनी ही मनोडष्टि का दोष निस्खलाना या अपने अग्रगन्ता की अतिमानुपी बुद्धि का वैमय जतमाना है. और जो ऐसा साहस करने में तत्र बनता है उसके लिए विचारशीलमान कह सकते है कि यह स्वतत्रता एक प्रकार का मालोमूलिया (उन्माद ) है, जिसका लक्षण है-किसी घात वा घस्तु को कुछ का कुछ समझ लेना, वापिन जानीयात में अपने फो झाता एवशक्ति से बाहर काम करने में समर्थ मान बैठना।
यह रोग यहुधा मस्तिष्प-शक्ति की हीनता से उत्पन्न होता है और यहुत काल तक एक ही प्रकार के विचार में मग्न रहने से यद्धमूल हो जाता है। आश्चर्य नहीं कि स्तम देश के पतषाचारियों ही की यातें लड़फपन से मुनते २ और अपनी रीति नीति का च शान गौरव न होने पर इमरों के मुग्न से उनकी निन्दा सहते २ ऐसा भ्रम हो जाता हो कि हम स्यतत्र है, तथा इस स्यतत्रता का परिचय देने में और टौर सुभीता न देखकर प्रायोल पुस्तकों ही के सिद्धान्तां पर मुह